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जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा
२. ज्योतिर्ज्ञाननिधि - प्रारम्भिक ज्योतिष सम्बन्धी उपयोगी ग्रन्थ है । इसमें व्यवहारोपयोगी मुहूर्त भी दिये हैं । ३. जातकतिलक - यह कन्नड़ में होरा और जातक सम्बन्धी कृति है । इसमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग और जन्म-कुण्डली सम्बन्धी फलादेश बताये हैं। दक्षिण भारत में इस ग्रन्थ का बहुत प्रचार रहा।
गणितसार पर उपकेशगच्छीय सिद्धसूरि की टीका भी है।
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दुर्यदेव (१०३२६०) यह प्रसिद्ध दिगम्बर जैन विद्वान् थे इनके गुरु का नाम संयमदेव था। इनके तीन ग्रन्थ प्राप्त हैं
१. रिट्ठसमुच्चय ( रिष्टसमुच्चय ) - इसकी भाषा मुख्यतया शौरसेनी प्राकृत है। इसे कुम्भनगर (कुम्भेरगढ़, भरतपुर, राजस्थान) में राजा लक्ष्मीनिवास के राज्यकाल में लिखा था। इसमें रिष्ट अर्थात् मरणसूचक लक्षणों का विचार है। यह सिपी जैन ग्रन्थमाला बम्बई से १९४५ ई० में प्रकाशित हो चुका है। शकुनों और शुभाशुभ निमित्तों का संग्रह है ।
२. अग्घकाण्ड (अर्घकाण्ड ) - यह प्राकृत में है । ज्योतिष ग्रन्थों में 'अर्ध' सम्बन्धी अध्याय मिलता है, परन्तु इस शीर्षक से केवल यही स्वतन्त्र ग्रन्थ मिलता है । ग्रहयोग के अनुसार किसी वस्तु के खरीदने या बेचने से लाभ होने का वर्णन है ।
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३. वष्टिसंवत्सरफल - यह लघुकृति है इसमें साठ संवत्सरों के फल का वर्णन है।
नरपति (११७५ ई० ) - यह धारा निवासी आम्रदेव के पुत्र थे । इसने अणहिल्लपुर के राजा अजयपाल के काल में सं० १२३२ (११७५ ई०) में आशापल्ली नामक स्थान में नरपतिजयचर्या ग्रन्थ की रचना की थी । इसमें मातृका आदि स्वरों के आधार पर शकुन देने की विधि दी है, इसमें यामलग्रन्थों का भी उल्लेख है ।
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इस पर वि० १०वीं शती में खरतरगच्छीय हर्षनिधान के शिष्य पुण्यतिलक ने टीका लिखी है। अन्य जैनेतर हरिवंश की टीका भी मिलती है ।
नरचन्द्रसूरि (१२२३ ई० ) – यह मलधारीगच्छ के आचार्य देवप्रभसूरि के शिष्य थे। इनका ज्योतिष पर ज्योतिस्तार ग्रन्थ प्राप्त है ।
ज्योतिस्सार — इसे 'नारचन्द्र ज्योतिष' भी कहते हैं । इसकी रचना सं० १२८० (१२२३ ई०) में हुई । तिथि, वार, नक्षत्र, योग, राशि, चन्द्र, तारकाबल, भद्रा, कुलिक, उपकुलिक, कंटक, अर्थप्रहर, कालवेला आदि ४८ विषयों का विवेचन है । इस पर सागरचन्द्र मुनि ने 'टिप्पण' लिखा है ।
उदयप्रभदेवसूरि (१२२३ ई० ) - यह नागेन्द्रगच्छीय (आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य थे । उदयप्रभदेवसूरि के मल्लिषेणसूरि और जिनप्रभसूरि शिष्य थे । ज्योतिष पर इनका आरम्भसिद्धि ग्रन्थ है ।
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आरम्भसिद्धि इसे व्यवहारचर्या' और 'पंच' भी कहते हैं। इसका रचनाकाल सं० १२०० (१२२३ ई० ) है । संस्कृत पद्यों में मुहूर्त सम्बन्धी उत्तम ग्रन्थ है । इसमें पाँच 'विमर्श' और ११ 'द्वार' हैं । इसमें प्रत्येक कार्य के शुभाशुभ मुहतों का वर्णन है। इस पर आचार्य रत्नशेखरसूरि के शिष्य हेमहंसगणि ने सं० १५१४ में सुधी शृंगार' नामक वार्तिक लिखा है ।
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पद्मप्रभसूर (१२३७ ई० ) - यह नागपुरीय तपागच्छ के संस्थापक और वादिदेवसूरि के शिष्य थे। इनका निवास स्थान राजस्थान था । इन्होंने ज्योतिष पर भुवनदीपक ग्रन्थ लिखा है ।
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भुवनदीपक इसे प्रभावप्रकाश' भी कहते हैं। इसका रचनाकाल सं० १२९४ (१२३७ ई०) है। छोटा होने पर भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें ज्योतिष के अनेक विषय दिये हैं ।
इस पर सिंहतिलकसूरिकृत 'भुवनदीपकवृत्ति', मुनि हेमतिलक कृत 'भुवनदीपककृत्ति', जैनेतर दैवज्ञशिरोमणिकृत 'भुवनदीपकवृत्ति' टीकाएँ प्राप्त हैं ।
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