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मेवाड़ की प्राचीन जैन चित्रांकन-परम्परा
हैं । राजकन्या अत्यन्त रूपवती थी, उसके लिए उचित वर देखने के लिए कई व्यक्ति भेजे गये । उनको यह भी आदेश दिया कि वे सुयोग्य व्यक्ति का चित्र बनाकर लावें । इस कार्य के लिए अयोध्या की ओर भूषण एवं चित्रमति नाम के चित्रकारों को भेजा गया। उन्होंने राजकुमार गुणचन्द्र को धनुष चलाते हुए देखा। उसका चित्र एक बार देखने पर नहीं बना सके २ तो राजकुमार के सामने वे स्वयं को चित्रकार बताते हुए पहुंचे। उन्होंने राजकुमारी का एक चित्र भी राजकुमार के सम्मुख प्रस्तुत किया । गुणचन्द्र ने उसको देखकर कहा कि यह चित्र आँखों को सुख देने वाला है। तुम सच्चे अर्थ में चित्रकार हो तभी ऐसा चित्र बना पाये । राजकुमारी के विशाल नेत्र दाहिने हाथ में रम्य सयवत्ता अंकित था। चित्र स्वयं अपने मूल रूप को प्रतिध्वनित कर रहा था। राजकुमार ने कहा कि चित्र इसलिए भी सुन्दर बन पड़ा कि राजकुमारी स्वयं सुन्दर है। राजकुमार ने दोनों ही चित्रकारों को, चित्र से प्रभावित होकर, एक लाख दीनार (दोणर लक्खो) पुरस्कार के रूप में दिथे । चित्र में रेखान्यास५ तक राजकुमारी की सुन्दरता के कारण छिप गये। राजकुमार स्वयं भी अच्छा चित्रकार था । अत: उसने तूलिका की सहायता से रंगों का मिश्रण करके अपने भावों के अनुरूप विद्याधर युगल का चित्र बनाया । राजकुमारी के चित्र में भी उसने कुछ पद लिखे। कालान्तर में दोनों का विवाह भी हो गया । इस प्रकार सारे प्रसंग में जो चित्रकला का वर्णन आता है. वह पारम्परिक होते हुए भी अपनी स्थानीय विशेषताओं के लिए हुए है। साथ ही मेवाड़ की तत्कालीन चित्रकला को विकास परम्परा दर्शाता है किन्तु इतना होते हुए भी मेवाड़ में चित्रकला का प्रामाणिक क्रम १२२६ ई० से बनता है, जिनमें उत्कीर्ण रेखांकन एवं सचित्र ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है
१-शिलोत्कीर्ण रेखांकन समिद्धेश्वर महादेव मन्दिर, चित्तौड़, वि० सं० १२८६ (१२२६ ई०) २-श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूणि, आघाटपुर, वि० सं० १३१७ (१२६० ई०) 2-शिलोत्कीर्ण रेखांकन, गंगरार, वि० सं० १३७५-७६ (१३१७-१८ ई.) ४–कल्पसूत्र, सोमेश्वर ग्राम गोड़वाड़, वि० सं० १४७५ (१४१८ ई.) ५-सुपासनाहचरियं, देलवाड़ा, वि० सं० १४८० (१४२३ ई.) ६-ज्ञानार्णव, देलवाड़ा, वि० सं० १४८५ (१४२८ ई.) ७-'रसिकाष्टक' भीखम द्वारा रचित वि० सं० १४९२ (१४३५ ई०)
१. जंपिय चित्तमइणा । अरे भूसणय, दिलै तए अच्छरियं । तेण भणियं । सुट्ठ दिट्ठ, किं तु विसण्णो अहं ।
-वही, पृ० ६०६ २. सव्वहा अणुरूवो एस रायधूयाए । किं तु न तोर ए एयस्स संपुणपडिच्छन्दयालिहणं विसेसओ सइंदसणंमि।
-वही, पृ० ६०६ ३. अह तं दळूण पडं पौइ भरिज्जन्त लोयणजुएण ।
भणियं गुणचन्देणं अहो कलालवगुणो तुब्भं । जइ एस कलाए लवो ता संपुणा उ केरिसो होई। सुन्दर असंभवो च्चिय अओ वरं चित्तयम्मास्स ।।
-वही, पृ० ६०८ ४. एसा विसालनयणा दाहिणकरधरियरम्मसयवत्ता ।
-वही, पृ०६०८ ५. एवंविहो सुरूवो रेहानासो न दिट्ठो त्ति । जइवि य रेहानासो पत्तेयं होई सुन्दरो कहवि ।।
-वही, पृ०६०८ ६. आलिहिओ कुमारेण सुविहत्तुज्जलेणं वणय कम्मेण अलरिकज्जमाणेहिं गुलियावएहि अणुरूवाए सुहमरेहाए पयडदंस
णेण निन्नन्नयविभाएणं विसुद्धाए वट्ठणाए उचिएणं भूसण । कलावेणं अहिणवनेहूसुयत्तणेणं परोप्परं हासुप्फुल्लबद्धदिट्ठो आरूढ पेम्मत्तणेणं लङ्घिओचियनिवेसो विज्जाहर संघाडओ त्ति ।
-वही, पृ० ६१५
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