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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
के अतिरिक्त जो ग्रन्थ लिखे गये उनको 'अनुयोग' कहते हैं। इनके चार विभाग हैं - ( १ ) प्रथमानुयोग — महापुरषों का जीवन-चरित्र, जैसे महापुराण, आदिपुराण (२) करणानुयोग लोकालोकविभाजन, काल, गणित आदि जैसेत्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार। (३) चरणानुयोग आचार का वर्णन, जैसे—मूलाचार ४ द्रव्यानुयोग - द्रव्य, गुण पर्याय, तत्त्व आदि का वर्णन, जैसे- प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि ।
आगमों का चौथा परवर्ती वर्गीकरण इस प्रकार है-अंग (११ या १२), उपांग १२ मूलसूत्र ४, छेत्रसूत्र ६, प्रकीर्णक १० । तत्त्वार्थभाष्य (१।२० ) में 'उपांग' से 'अंगबाह्य' माना गया है। इस प्रकार कुल आगमों की संख्या ४५ है ।
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समवायांग और नन्दीसूत्र में बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के पाँच विभाग बताये हैं- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका दिगम्बर मान्यता के अनुसार परिकर्म के पांच भेद है चन्द्रप्रप्ति, सूर्वप्रज्ञप्ति, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति । 'पूर्वगत' में पूर्वोक्त चौदह 'पूर्वी' का समावेश होता है । चूलिका के भी पाँच भेद हैं— जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता, रूपगता ।
निशीवचूर्णि के अनुसार दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग का विचार किया गया है।
यह दृष्टिवाद सब अंगों में श्रेष्ठ था और इसका साहित्य बहुविध व अत्यन्त विस्तृत था ।
जैन परम्परा में समस्त लौकिक या लाक्षणिक विद्याओं और शास्त्रों की उत्पत्ति 'दृष्टिवाद' से मानी जाती जाती है। दुर्भाग्य से दृष्टिवाद का साहित्य अब लुप्त हो चुका है परन्तु उससे व्युत्पन्न विद्याओं का अस्तित्व और विकास शनैः-शनैः प्रकट हुआ ।
'दृष्टिवाद' के 'परिकर्म' संज्ञक विभाग में लिपिविज्ञान, ज्योतिष और गणित का विवेचन मिलता है। 'षट्'खंडागम' की 'धवला' टीका में वीरसेनाचार्य ने गणित सम्बन्धी विवेचन में 'परिकर्म' का उल्लेख किया है। इसी से गणित - ज्योतिष का प्रादुर्भाव हुआ । परिकर्म के पाँच भेदों में से प्रथम चार सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति को जैन ज्योतिषशास्त्र और गणितशास्त्र का मूल माना जाता है।
श्वेताम्बर परम्परा में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की गणना बारह उपांगों में की
गई है।
अष्टांग निमित्तों का विवेचन 'दृष्टिवाद' के 'पूर्व' संज्ञक भेद के 'विद्यानुप्रवाद' संज्ञक उपभेद में हुआ था । 'कल्याणवाद' (अबन्ध) नामक 'पूर्व' में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों की विविध गतियों के आधार पर शकुन का विचार तथा बलदेवों, वासुदेवों, चकवतियों आदि महापुरुषों के गर्भावतरण, जन्म आदि अवसरों पर होने वाले लक्षणों और कल्याणों का विवरण दिया गया है। इस प्रकार शुभाशुभ लक्षणों के निमित्त से भविष्य की घटनाओं का कथन अबंध्य अर्थात् अवश्यम्भावी माना गया था। इस कारण इस पूर्व को 'कल्याणवाद' या 'अबंध्य' कहते हैं ।
'णिवा' नामक प्रकीर्णक भी ज्योतिष से सम्बन्धित है।
अन्य आगम साहित्य में भी प्रसंगवश ज्योतिष सम्बन्धी विचार प्रकट हुए हैं।
'करणानुयोग' में ज्योतिष, गणित, भूगोल और कालविभाग का समावेश होता है। दिगम्बर परम्परा में इस विषय के लोकविभाग, तिलोयपण्णत्ति (त्रिलोकप्रज्ञप्ति), त्रिलोकसार और जम्बूद्वीपण्णत्ति प्राचीन ग्रन्थ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय के आगम साहित्यान्तर्गत सूर्यप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, क्षेत्रसमास और संग्रहणी का समावेश होता है योतिषकरण्डक' इन सबसे प्राचीन केवल ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ है।
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दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण के १६२ वर्ष बाद भद्रबाहु के स्वर्गवासी होने पर अंग ग्रन्थ क्रमशः विच्छिन्न होने लगे। सम्पूर्ण आगम साहित्य लुप्त हो गया; केवल 'दृष्टिवाद' के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व 'अग्रायणीय'
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