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सम्पादकीय
मानव अपने जीवन का अधिकांश भाग यही सोचते-विचारते व्यतीत कर देता है कि अब मैं जीवन को नष्ट होने से बचाऊँगा, इसका परिणाम यह होता है कि जीवन तो नष्ट हो जाता है और हम जीवित रहने के उपक्रम में व्यस्त होकर रह जाते हैं। इसलिये महत्व इस बात का नहीं है कि हम कितने अधिक जीवित रहते हैं, अपितु महत्व इस बात का है कि हम कैसे जीवित रहते हैं क्योंकि यह दुर्लभ मानव जीवन बिजली की चमक-दमक की तरह चंचल है। जैन आगम साहित्य के प्रथम उपांग औपपातिक सूत्र में कहा गया है कि "जलबुब्बुयसमाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जीवियं” अर्थात् जीवन जल के बुलबुले के सदृश एवं कुशा के अग्रभाग पर स्थित जल बिन्दु के समान है। जीने की इस कला को जो जान लेता है, उस महापुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व मानव मन व मस्तिष्क पर गहनता व सघनता का प्रकाशज परिव्याप्त कर देता है, उसे विस्मरण करना सम्भव नहीं हो पाता, ज्यों-ज्यों उसे विस्मरण करने की चेष्टा करते हैं, त्यों-त्यों वह चेतना की कालजयी प्राणधारा का सार्थक सिंचन करता है।
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भारतीय सभ्यता के सांस्कृतिक जागरण में ऐसे ही एक महापुरुष कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा ने अपनी अमृतोपासक अन्तरात्मा से कांठा क्षेत्र के एक लघु अंचल राणावास में देश के विद्या-पिपासु नौनिहालों के लिये भारतीय सरस्वती का जयघोष किया है। इस घोर कलिकाल में जब समाज और राष्ट्र किकर्तव्यविमूढ़ है, मानव का अपराजित आत्म-विश्वास, अद्वितीय आत्मशक्ति एवं मंगलमय विवेक का ह्रास होता चला जा रहा है, इस त्रस्त व संतप्त समय चक्र में आपने अपने भौतिक सुखों का परित्याग कर और कालकूट का स्वयं पान कर भावी पीढ़ी के लिये दिव्य-सुधा का दिशाबोध दिया है। आपने सस्ती कीति, चमकते हुए आडम्बर और अहोरूपम् अहोध्वनि से दूर रहकर 'सरस्वती देवयन्तो हवन्ते' की सजीव प्रतिमूर्ति के रूप में अपने जीवन की सर्वतोमुखी प्रतिभा के मंगलदीप संजोये हैं। भारत के कोने-कोने में ऐसे सैकड़ों-हजारों मंगलदीप विकीर्ण होकर प्राणवल्लभ माँ भारती के नवोन्मेष का शाश्वत यशोगान करने में निमग्न है।
ऐसे महामानव, उद्बोधक, शिक्षासुधानिधि और "काकोसा" की अभिधा मे सार्वजनिक रूप से सम्बोधित कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के
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