________________
माण्डू के जावड़ शाह ...................................................................
८६ ......
गणि का 'गुरुगुणरत्नाकर' महाकाव्य है । यह तपागच्छ के ५३३ गच्छेश आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि का जीवन चरित है। किन्तु इससे जावड़ की संघयात्रा पर ही पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इनके अतिरिक्त विबुधविमलशिष्य द्वारा गुजराती पद्यों में रचित 'तपागच्छ-पट्टानुक्रम-गुर्वावली छन्द' (संवत् १५७०) तथा आधुनिक 'लघुपौषालिक-गच्छपट्टावली' दो अन्य स्रोत हैं, इन दोनों से जावड़ की प्रतिमा-प्रतिष्ठा के विषय में पर्याप्त सूचना मिलती है।
वंशावली-जावड़ एक प्राचीन, अतीव सम्मानित तथा धनाढ्य परिवार का वंशज था । इसका अनुमान इस तथ्य से किया जा सकता है कि, हापराज को छोड़कर उसके पूर्वजों की श्रृंखला के सभी घटक व्यक्ति संघपति थे। इसका तात्पर्य है कि उन्होंने कम-से-कम एक बार संघयात्रा का आयोजन किया था। यह ऐसा काम है जिसके लिए उन दिनों असीम साहस, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा धन की आवश्यकता थी। जावड़ के तीन पूर्वज मालव-नरेशों के दरबारों से सम्बन्धित थे। हापराज 'मास्टर आफ प्रोटोकोल' के समान कोई अधिकारी था। गोल्ह राजा का प्रेम-पात्र था तथा जावड़ का पिता राजमल्ल मालवपति महिमुन्द की सभा का भूषण था।
इनमें से अधिकांश की, उनकी दानशीलता तथा पवित्रता के कारण प्रशंसा की गयी है। अन्त में राजमल्ल का प्रशस्तिगान हुआ है, जो माण्डू में गुरु लक्ष्मीसागरसूरि का ठाटदार स्वागत करने के कारण प्रख्यात है। इस आयोजन पर उसने ६०,००० टंक व्यय किये थे। इस लोकप्रिय तथा विद्वान् साधु के माण्डू में ठहरने की पुष्टि, संवत् १५१७, १५२०, १५२१ तथा १५२४ में उनके द्वारा अभिषिक्त (प्रतिष्ठित) जिन-प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों से होती है। इससे राजमल्ल के इस कार्य का समय भी लगभग निश्चित हो जाता है। .
प्रशासनिक तथा सामाजिक प्रतिष्ठा-वंश-परम्परा के अनुरूप जावड़ को भी राजदरबार में प्रतिष्ठित पद प्राप्त था। गयासुद्दीन सदैव उसका सम्मान किया करता था। सुल्तान ने उसे उत्तम व्यवहारों की उपाधि से विभूषित तथा कोषाध्यक्ष नियुक्त किया था। इसीलिए उसे सुल्तान का मन्त्री कहा गया है। कभी-कभी जावड़ेन्द्र के रूप में भी उसका उल्लेख हुआ है । यह विरुद उसकी सत्ता के अतिरिक्त, लघुशालिभद्र की भांति, उसकी असीम समृद्धि को व्यक्त करता है।
श्रीमालभूपाल' विरुद उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक है। यह उपाधि उसके लिए बार-बार प्रयुक्त । की गयी है।
तीर्थयात्रा-जैसा उसके विशेषण संघनायक तथा नियमित उपाधि संघपति से व्यक्त है, जावड़ को अपने सम्प्रदाय में बहुत सम्मान प्राप्त था। स्पष्टत: उपरोक्त उपाधि उसे अर्बुदाचल (आबू) तथा जीरापल्ली अथवा जीरापुरी (आधुनिक जीरावल) की तीर्थयात्रा करने के पश्चात् मिली थी। ये दोनों अब भी जैनों के विख्यात तीर्थ-स्थान हैं । जावड़ की किसी अन्य तीर्थ-यात्रा का अन्य स्रोतों से पता नहीं चलता, यद्यपि वे उसके साथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के अपार समूह तथा उसके द्वारा व्यय की गयी असीम धन-राशि का वर्णन करते-करते नहीं अघाते। कल्पप्रशस्ति के अनुसार जसधीर स्वयं भी संघयात्रा का सदस्य था। मण्डप का मन्त्रीश जाउ, अपने संव के साथ किस प्रकार उज्जैन तथा धारा से आने वाले संघों से रतलाम में मिला, और कैसे तीनों संघ मिलकर गच्छपति आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि की वन्दना करने के लिए ईडर गये, इसका वर्णन 'गुरुगुणरत्नाकर में सन्तोषपूर्वक किया गया है। वहाँ से आबू तथा जीरावला गये और धार्मिक उत्सव मनाते हुए, उपवास एवं दावतें करते हुए तथा सदैव आनन्दपूर्वक मुक्त हस्त दान देते हुए वे सिरोही के रास्ते मालवा लौटे । सौभाग्यवश, आबू के लुनि वसहि मन्दिर में उत्कीर्ण एक शिलालेख की सहायता से इस यात्रा का समय निश्चित किया जा सकता है। यह लेख संवत् १५३१ में, श्रीमालीकुल के संघपति राजा (राजमल्ल) तथा उसकी पत्नी सुहब के पुत्र, संघपति जावड़ की उक्त तीर्थ की यात्रा के उपलक्ष में खुदवाया गया था । यह यात्रा जावड़ ने अपनी पत्नी धनीया के साथ की थी।
१. सुमतिसम्भव के सप्तम सर्ग की पुष्पिका का पाठ "श्रीमालवभूपाल" छन्द की दृष्टि से सदोष है । २. मुनि जयन्तविजय : श्री अर्बुद-प्राचीन-जैनलेख-सन्दोह, श्रीविजयधर्म जैन ग्रन्थमाला, संख्या ५०, संवत्
१६६४, पृ० १५५, सं० ३८७, पृ० ४६५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org