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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रथम खण्ड
ससुराल में बुजुर्गों का साया आपसे उठ गया । यह वज्रपात कम नहीं था, आपकी उम्र भी बहुत कम थी किन्तु आपके देवतातुल्य पतिदेव कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के कुशल व दूरदर्शी मार्ग-दर्शन में आपने गृहस्थाश्रम का भार बड़ी लगन, तन्मयता व परिश्रम के साथ उठाया ।
ससुराल में आते ही छः वर्षीय देवर श्री भंवरलालजी सुराणा के वात्य-जीवन को सजाने-संवारने का महत्त्वपूर्ण जिम्मा भी आपके सबल कंधों पर ही था। आपने अपने देवर को मातृवात्सल्य ही प्रदान नहीं किया अपितु उन्हें उनकी माँ की कमी कभी अखरने नहीं दी अल्पवय में आपकी यह कार्यकुशलता आपके व्यक्तित्व की विराटता को प्रभावित करती है। पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र में ही आपके देवर श्री भंवरलालजी सुराणा का विवाह कर दिया गया। विवाह में माताजी ने जिस परिश्रम के साथ सम्पूर्ण दायित्व निभाए, वह भी आपकी गृहस्थाश्रम में पकड़ को स्पष्ट करती है। अब परिवार में दो महिलाएं हो गई माताजी एवं देवर की धर्मपत्नी अर्थात् जेठानी व देवरानी । धीरे-धीरे दोनों में ऐसा स्नेह विकसित हुआ कि उन्हें देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि ये जेठानी व देवरानी है, दोनों बहनों की तरह रहती और उसी तरह काम में जुटी रहतीं।
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अभाव अगर कहीं पर था तो यह कि आपको सन्तान सुख नहीं मिला। एक मात्र पुत्री बदाम बाई के निधन के बाद जब आपके कोई सन्तान नहीं हुई तो अपने देवर की पुत्री दमयन्ती देवी को आपने गोद ले लिया । दमयन्ती देवी की उम्र उस समय मात्र छः माह की ही थी, किन्तु आपने उसे मातृ-स्नेह प्रदान कर अत्यन्त वात्सल्य भाव से पाल-पोसकर बड़ा किया और वि०सं० २०१० में खिवाड़ानिवासी श्री अमीचन्दजी गादिया के सुपुत्र श्री विरदीचन्दजी गादिया के साथ विवाह करा दिया ।
श्रीमती सुन्दरदेवी अपने पति के साथ धूप और छाया की तरह सदा से ही रही है। पति के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख मानकर आपने अपना जीवन पतिमय बना दिया। कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा ने जब वि० सं० २००० में व्यापार-धन्धा बन्द कर दिया और शेष जीवन अध्यात्म साधना में लगाने का निश्चय किया तो आपने उसका कोई विरोध नहीं किया, यह भी नहीं सोचा कि भविष्य का गुजारा कैसे होगा, बल्कि वे पतिदेव की साधना में स्वयं साधिका बनकर जुट गई। पतिदेव व्यापार वाणिज्य छोड़कर और उसका सम्पूर्ण दायित्व अपने लघु प्राता भंवरलालजी को प्रदान कर बोलारम (आन्ध्र प्रदेश) से जब राणावास आ गये और राणावासस्थित सुमति शिक्षा सदन विद्यालयरूपी अंकुरित पौधे को सींचकर वट वृक्ष के रूप में विकसित करने का जिम्मा जब उन्होंने ग्रहण कर लिया तो माताजी ने भी अपने पति की इस इच्छा को पूरी करने में शेष जीवन खपा देने का निश्चय कर लिया ।
पतिदेव जब व्रत-उपवास कर रहे हों या पडिमाधारी श्रावक की तपस्या अथवा साधना कर रहे हों या संस्था का कार्य, वे उनके प्रत्येक कार्य में सहयोग देने लगीं। वे सती सावित्री की तरह पति की सेवा में लग गई । न तो रात देखी और न ही दिन, समय पर भोजन बनाना, घर का समस्त काम-काज करना, पतिदेव की इच्छा व कार्य का ध्यान रखकर तदनुकूल समय पर व्यवस्था करना आपके जीवन की नियमित दिनचर्या बन गई । पतिदेव जब भी चन्दा प्राप्त करने राणावास से बाहर प्रवास पर निकलते, आप उनके साथ रहकर सहयोग करतीं । तात्पर्य यह कि आपने अपने आपको पति के साथ इस तरह एकाकार कर लिया कि एक आत्मा और दो शरीर की लोकोक्ति को जग में प्रकाशित प्रदीप्त कर दिया।
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-आपका स्वयं का जीवन आध्यात्मिक साधना का तेजोमय पुंज है घर-गृहस्थी के कार्य से निवृत्त होकर सामायिक लेकर बैठ जाना और सामायिक में स्वाध्याय करना आफ्नो दैनिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। व्रत और उपवास तो आप करती ही रहती है, किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि व्रत-उपवास तपस्या आदि में भी वह पर-गृहस्थी के कार्य में तथा अपने पतिदेव की साधना में कभी डील नहीं आने देती हैं। आपके व्यक्तित्व की यह महान् विशेषता नारी के समर्पण भाव को उजागर करती है ।
माताजी स्वभाव से अत्यन्त मृदु है। शरीर पर अहंकार तो मानो खु ही नहीं गया है। सादा जीवन और उच्च विचार आपके जीवन का मूलमंत्र है। आपके चेहरे पर कभी किसी ने क्रोध नहीं देखा । एक शान्त और पवित्र
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