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कृष्ट तत्वों को ग्रहण कर अतिरिक्त एवं अनपेक्षित तत्वों को स्वागती हुई निरन्तर सम्बर्द्धनशील रहती है। शिक्षा में भी यही प्रक्रिया होनी चाहिए—सार सार की महि लहे, थोथा देहि उदाय' अर्थात्स का ग्रहण एवं असद् का परि त्याग । समाज विशेष की भौतिक परिस्थितियों के अनुरूप उसकी सम्पन्नता को बनाये रखना एवं विपन्नता अथवा अभाव को कम करने का उद्देश्य भौतिक पक्ष है जिसे सभ्यता-पक्ष भी कहा जा सकता है । इसमें समाज विशेष की प्रौद्योगिक प्रगति, आर्थिक दशाएँ आदि बिन्दु सन्निहित हैं ।
संस्कृति-पक्ष सार्वभौमिक मूल्यों एवं आदर्शों को लेकर चलता है जिसमें व्यक्ति के सामान्य विकास, उसकी संस्कृति की सुरक्षा एवं प्रगति पर बल होता है। अतः इसे आदर्श आधार भी कहा जा सकता है। सभ्यता या भौतिक पक्ष में सार्वभौमिक आधार न होकर समाज - विशेष की भौतिक परिस्थितियों का आधार होता है। समाज - विशेष की वस्तुस्थिति पर आधारित होने से इसे यथार्थवादी आधार भी कहा जा सकता है।
भारत धर्म-प्रधान देश रहा है। यहाँ भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता को ही अधिक बल मिला है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत का भौतिक पक्ष दुर्वल रहा है। यदि ऐसा होता तो भारत कभी 'सोने की चिड़िया' नहीं होता । किन्तु भौतिक पक्ष पर भी नियन्त्रण आध्यात्मिक पक्ष का ही रहा है । अतः यहाँ की शिक्षा में चारित्रिक गुणों के विकास पर ही अधिक बल दिया गया है। धर्म का अनुसरण और तदनुरूप जीवन-यापन ही लक्ष्य रहा है। भारतीय समाज में जीवन को व्यवस्थित करने हेतु आश्रम व्यवस्था एवं समाज को व्यवस्थित करने हेतु वर्ण व्यवस्था थी। समाज के विभिन्न वर्णों एवं जीवन की विविध अवस्थाओं का सुन्दर सामंजस्य वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था के रूप में था । किन्तु आज का भारत प्राचीन भारत से बहुत कुछ बदला हुआ है अतः आज के युग में वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था कल्पना के बिन्दु हैं। समाज एवं समय के परिवर्तन के अनुसार यह अवश्यंभावी ही था ।
पुरातन एवं नवीन का संघर्ष एक शाश्वत तथ्य है । यद्यपि भारत में पुरातन का आग्रह अधिक रहा है किन्तु वर्तमान भारत में वह आग्रह भी शिथिल पड़ गया है। एक लम्बी अवधि से पुरातन के आग्रह में सिमटे भारतीय युवक को पाश्चात्य समाज एवं संस्कृति की वैचारिक और आचारिक स्वतन्त्रता न केवल प्रभावित करती है वरन् उन्हें वह आदर्श सी जान पड़ती है । फलतः पाश्चात्य भौतिक चकाचौंध से प्रभावित तरुण वर्ग को भारतीय पुरातन व्यर्थ लगता है और वह उसकी सहज उपेक्षा कर देता है । किसी देश का इससे बढ़कर क्या दुर्भाग्य होगा कि उसके युवक के व्यक्तित्व का निर्माण विदेशी संस्कारों से ही
शिक्षा के उद्देश्य
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में भौतिक सम्पन्नता को बढ़ाने हेतु तो प्रयास हुए पर वैचारिक या आत्मिक क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई । भारतीय पुरातन में से वर्तमान समाज की दृष्टि से अतिरिक्त एवं अनपेक्षित मान्यताओं, रूढ़ियों और व्यवस्थाओं को हटाया तो गया पर इनके स्थान पर पूरक की प्रतिष्ठा नहीं हो पायी है । इससे भौतिक और वैचारिक क्षेत्र में अत्यधिक असुन्तलन हो गया । स्पष्ट है कि यह असन्तुलन वैचारिक या आत्मिक पक्ष के अभाव से है। इसी से जीवन में निराशा और असन्तोष व्याप्त हो गया ।
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शिक्षा के सम्मुख सांस्कृतिक और भौतिक दोनों ही पक्ष हैं भारत का अतीत सांस्कृतिक प्रतिमा से सदैव गौरवान्वित रहा है। वर्तमान में वह प्रतिभा पाश्वात्य भौतिक चकबध से विलीन होती जा रही है। दूसरी ओर आधुनिक भौतिक युग में भारत को भी अपनी भौतिक प्रगति करनी है। सांस्कृतिक पक्ष के अन्तर्गत प्राचीन आद या वैचारिक मूल्यों को वर्तमान समाज के अनुरूप तथा भौतिक पक्ष को वर्तमान संसार के अनुरूप ढालना है। संक्षेप में भारतीय शिक्षा को अतीतकालीन सांस्कृतिक गरिमायुक्त भारत और बर्तमान भौतिकता के चरम की ओर अग्रे सित संसार के मध्य सेतुबन्धन करना है, उनका सामंजस्य करना है। यही भारतीय शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हुमायूं कबीर के विचार भी इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है
'भारत में शिक्षा के द्वारा लोकतन्त्रीय चेतना, वैज्ञानिक खोज और दार्शनिक सहिष्णुता का निर्माण किया जाना चाहिये । केवल तभी हम उन परम्पराओं के उचित उत्तराधिकारी होंगे जिनका निर्माण देश के अतीत में हुआ है। केवल तभी हम उस आधुनिक विरासत में अपना भाग पाने के अधिकारी होंगे, जो विश्व के समस्त राष्ट्रों की विरासत
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