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शब्द-अर्थ सम्बन्ध : जैन दार्शनिकों की दृष्टि में
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और अर्थों के बीच भेद का कारण कारणभेद हुआ करता है। यथा स्त्रियों में वन्ध्यावध्यादि का भेद कारणभेद से हुआ करता है, उसी प्रकार शब्दों में सत्य मिथ्यादि का भेद कारणभेद से होता है।'
एक शब्द की विशेषता (अर्थात् यह शब्द सत्य है अथवा मिथ्या) हम शब्द के स्वरूप का विश्लेषण आदि करके जान सकते हैं । जैसे प्रमाण-भूत ज्ञान की प्रमाणता तथा अप्रमाणभूत ज्ञान की अप्रमाणता हम ज्ञान के स्वरूप का विश्लेषणादि करके जानते हैं। हमारी यह मान्यता सत्य है, क्योंकि यह लोकानुभवसिद्ध है। इसके अतिरिक्त अमुक शब्द अमुक अर्थ का द्योतक है, इस प्रकार का ज्ञान किसी व्यक्ति को कराने की आवश्यकता तब होती है जब उस व्यक्ति के ज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम न हुआ हो, जहाँ तक योगियों के ज्ञान का प्रश्न है, उनको उक्त ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती है।
मल्लिसेन के मतानुसार शब्द और अर्थ में कथंचित् तादात्म्य-सम्बन्ध है । कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध से यह परिलक्षित होता है कि इस मत में शब्द और अर्थ का नित्या नित्यात्मक सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध के मूल में इनका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त निहित है । वैसे भी ये शब्द को नित्यानित्यात्मक मानते हैं, जिससे भी शब्द और अर्थ में नित्यानित्यात्मक सम्बन्ध होना ही सिद्ध होता है।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६५८-५६
अनभ्युपगमाच्चेह तादात्म्यादिसमुद्भवाः । न दोषो नो न चान्येऽपि तद् भेदात् हेतु भेदतः ।। वन्ध्येतरादिको भेदौ रामादीनां यथैव हि ।
मृषासत्यादिशब्दानां तद्वत् तद्धतु भेदतः ।। २. ज्ञायते तद्विशेषस्तु प्रमाणेतरयोरपि ।
स्वरूपालोचनादिभ्यस्तथा दर्शनतो भुवि ।। समयाक्षेपणं चेह तत्क्षयोपशमं विना। तत्कर्तृत्वेन सफलं योगिनां तु न विद्यते ।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, पृ० ६६२-६३.
३. शब्दार्थयोः कथंचित् तादात्म्याभ्युपगमात् ।
-स्याद्वादमंजरी, पृ० १२८
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