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रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत
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(७) वधू-शिक्षा–भारतीय साहित्य में ही नहीं समाज में भी विवाह के बाद विदाई के समय वधू को मातापिता या सखी द्वारा शिक्षा देने की प्रथा प्रचीन समय से लेकर वर्तमान तक प्रचलित है। रत्नबती की विदाई के अवसर पर उसके माता-पिता--सास-ससुर, देवर एवं गुरुजनों इत्यादि के प्रति आदर भाव रखने एवं सबकी आज्ञानुवर्ती होने की शिक्षा देते है। पद्मावत में पद्मावती की विदाई के अवसर पर सखियाँ उसे पति के अनुकूल चलने की शिक्षा देती हैं।
(८) शकुन-विचार-शकुनों को देखकर काम करने की प्रथा आज भी प्रचलित है। इसे भी कथानक-रूढ़ि के रूप में प्रयुक्त किया गया है। रत्नशेखर कथा में मंत्री शुभ शकुन देखकर रत्नवती की खोज में जाता है। तथा जब रत्नवती सखी से नायक के बारे में सुनती है तो उसका बाँया नेत्र फड़कने लगता है जिसे वह शुभ शकुन मानती है ।
रत्नसेन के चित्तौड़ से पद्मावती की प्राप्ति के लिए प्रस्थान करने पर शकुन देखने वाले शकुन देखकर इष्ट प्राप्ति होने की भविष्यवाणी करते हैं ।
(६) तोते का उल्लेख-रत्नशेखरकथा में तोते को एक पात्र के रूप में कथा के मध्य में लिया गया है। एक शुक-शुकी रत्नशेखर एवं रत्नवती के हाथ में आ कर बैठते हैं तथा वार्तालाप करते हैं। पद्मावत में तोते को प्रमख पात्र के रूप में प्रारम्भ से ही ग्रहण किया गया है। नायक-नायिका का मिलन भी तोता ही कराता है।
- रयणसेहरीकहा पृ० १८.
१. निर्व्याजा दयिते ननदृषु नता श्वश्रुषु भक्ताः भवेः ।
स्निग्धाबन्धुषु वत्सला परिजने स्मेरा स्वपत्निष्वपि ॥ पत्थमित्रजने सनर्मवचना स्विना च तद्द्व षिषु ।
स्त्रीणां संववननं नतभु ! तदिदं बीजौषधं भर्तुषु ।। २. तुम्ह बारी पिय चहुं चक राजा । गरब किरोधि ओहि सब छाजा ।
सबफर फूल ओहि के साखा । चहै सो चूरै चहै सो राखा ॥ आएस लिहें रहेहु निनि हाथा । सेवा करेहु लाइ भुइं मांथा । बर-पीपर सिर ऊभ जो कीन्हा । पाकरि तेहि ते खीन फर दीन्हा । बंवरि जो पौंडि सीस भुंइ लावा । बड़ फर सुभर ओहि पं पावा ॥ आव जो फरि के नवै तराहीं । तब अंब्रित भा सब उपराहीं ।।
सोइ पियारी पियहिपिरीती । रहै जो सेवा आएसु जीती ॥ ३. तओ पहाणसुउणबलं लहिऊण दक्षिण दिसं पडिचलिओ। ४. तक्काल च वामनयनफुरणेण आणन्दिआ.....। ५. आगै सगुन सगुनिआ ताका। दहिउ मच्छ रूपे कर टाका ॥
भरें कलस तरुनी चलि आई। दहिउ देहु ग्वालिन गोहराई । मालिन आउ मौर लै गाथें। खंजन बैठ नाग के माथें । दहिने मिरिग आइ गौ धाई। प्रतीहार बोला खर बाई ॥ विर्ख संवरिआ दाहिन वोला । बाएं दिसि गादुर नहिं डोला । बाएं अकासी धोविन आई। लोवा दरसन आइ देखाई ॥ बाएं कुरारी दाहिन कूचा । पहुँचै भुगुति जैस मन रूचा ॥ जाकहं होहिं सगुन अस औ गवन जैहि आस ।
अस्टी महासिद्धि तेहि जस कवि कहा बिआस ।। ६. रयणसेहरीकहा पृ० १६. ७. पद्मावत ५४।५.
- पद्मावत, ३८१॥ १-७ -रयणसेहरीकहा, पृ० ४.
-~वही, पृ० १६.
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-पद्मावत, १३५॥ १-६
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