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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड
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पर विस्तार के संकोच में कोई विषय अस्पष्ट नहीं रहा है। लेखक विषय का यथोचित विवेचन करता हुआ आगे बढ़ने के लिए स्वयं ही आतुर रहा है। जहाँ कहीं भी विषय का विस्तार हुआ है वहाँ उत्तरोत्तर नवीनता आती गई है। वह विषय विस्तार सांगोपांग विषय-विवेचना की प्रेरणा से ही हुआ है। जिस विषय को उन्होंने छुआ उसमें "क्यों" का प्रश्नवाचक समाप्त हो गया है । शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है।
पण्डितजी का सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने संस्कृत, प्राकृत में निबद्ध आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान को भाषागद्य के माध्यम से व्यक्त किया और तत्त्व विवेचन में एक नई दृष्टि दी। यह नवीनता उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि में है।
टीकाकार होते हुए भी पण्डितजी ने गद्य शैली का निर्माण किया। डॉ. गौतम ने उन्हें गद्य निर्माता स्वीकार किया है। उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त प्रश्नोत्तरमयी तथा सुगम है । वे ऐसी शैली अपनाते हैं जो न तो एकदम शास्त्रीय है और न आध्यात्मिक सिद्धान्तों और चमत्कारों से बोझिल। उनकी इस शैली का सर्वोत्तम निर्वाह 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में है । तत्कालीन स्थिति में गद्य भाग को आध्यात्मिक चिन्तन का माध्यम बनाना बहुत ही सूझ-बूझ और और श्रम का कार्य था। उनकी शैली में उनके चिन्तक का चरित्र और तर्क का स्वभाव स्पष्ट झलकता है। एक आध्यात्मिक लेखक होते हुए भी उनकी गद्यशैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी मौलिक विशेषता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पण्डित टोडरमलजी न केवल टीकाकार थे बल्कि अध्यात्म के मौलिक विचारक भी थे। उनका यह चिन्तन समाज की तत्कालीन परिस्थितियों और बढ़ते हुए आध्यात्मिक शिथिलाचार के सन्दर्भ में एकदम सटीक है।
लोकभाषा काव्यशैली में 'रामचरितमानस' लिखकर महाकवि तुलसीदास ने जो काम किया, वही काम उनके दो सौ वर्ष बाद गद्य में 'जिन-अध्यात्म' को लेकर पण्डित टोडरमलजी ने किया। - जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वों से दूर रहने वाले एवं निरन्तर आत्मसाधना व साहित्य-साधनारत इस महामानव को जीवन की मध्य वय में ही साम्प्रदायिक विद्वेष का शिकार होकर जीवन से हाथ धोना पड़ा।
इनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये लेखक के शोध प्रबन्ध 'पण्डित टोडरमल । व्यक्तित्व और कर्तृत्व का अध्ययन करना चाहिये । इनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है
"ताते बहुत कहा कहिये, जैसे रागादि मिटावने का श्रद्धान होय सो ही सम्यग्दर्शन है। बहरि जैसे रागादि मिटावने का जानना होय सो ही सम्यग्ज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिटें सो ही सम्यक्चारित्र है । ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।
बौलतराम कासलीवाल-महापण्डित टोडरमलजी के पश्चात् यदि किसी महत्त्वपूर्ण गद्य-निर्माता का नाम लिया जा सकता है तो वह है दौलतराम कासलीवाल। इनका उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास के 'गद्य विकास' (पृ० ४११ पर) में किया है।।
इनका जन्म जयपुर से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर स्थित वसवा नामक स्थान पर विक्रम सं० १७४८ में हुआ था। इनके पिता का नाम आनन्दराम था। ये खण्डेलवाल जाति एवं कासलीवाल गोत्र के दिगम्बर जैन विद्वान थे। वे जयपुर राज्य में उच्चाधिकारी के पद पर सेवारत थे। ये जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के वकील बनकर बहुत काल तक उदयपुर में रहे। उस समय की रचनाओं में इन्होंने स्वयं को नृपमन्त्री लिखा है। साधर्मी भाई ब. रायमलजी ने अपनी जीवन पत्रिका में तत्सम्बन्धी उल्लेख इस प्रकार किया है
१. हिन्दी गद्य का विकास, डॉ. प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्य नगर, कानपुर, पृ० १८५ व १८८ २. प्रकाशक - पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर जयपुर--४ ३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पंडित टोडरमल ट्रस्ट, पृ०, ३१३
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