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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड
लगातार रहा था। अतः अपभ्रंश साहित्य में भी कृष्णविषयक रचनाओं की दीर्घ और व्यापक परम्परा का स्थापित होना अत्यन्त सहज था । किन्तु उपरिवर्णित परिस्थिति के कारण हमें न तो प्राप्त है अपभ्रंश का एक भी शुद्ध कृष्णकाव्य, और न हमें प्राप्त है एक भी जैनेतर कृष्णकाव्य । जैन परम्परा की जो रचनाएँ मिलती हैं वे भी बहुत कर के अन्य बृहत् पौराणिक रचनाओं के एकदेश के रूप में मिलती हैं। इतना ही नहीं उनमें से अधिकांश कृतियों अब तक अप्रकाशित हैं । इसका अर्थ यह नहीं होता कि अपभ्रंश का उक्त कृष्णसाहित्य काव्य गुणों से वंचित है । फिर भी इतना तो अवश्य है कि कृष्णकथा जैन साहित्य का अंश रहने से तज्जन्य मर्यादाओं से वह बाधित है ।
जैन कृष्णकथा का स्वरूप
वैदिक परम्परा की तरह जैन परम्परा में भी कृष्णचरित्र पुराणकथाओं का ही एक अंश था। जैन कृष्णचरित्र वैदिक परम्परा के कृष्णचरित्र का ही सम्प्रदायानुकूल रूपान्तर था । यही परिस्थिति रामकथा आदि कई अन्य पुराणकथाओं के बारे में भी है। जैन परम्परा इतर परम्परा के मान्य कथास्वरूप में व्यावहारिक दृष्टि से एवं तर्क बुद्धि की दृष्टि से असंगतियाँ बताकर उसे मिथ्या कहती है और उससे भिन्न स्वरूप की कथा जिसे वह सही समझती है उसको वह प्रस्तुत करती है । तथापि जहाँ-जहाँ तक सभी मुख्य पात्रों का, मुख्य घटनाओं का और उनके क्रमादि का सम्बन्ध है वहाँ सर्वत्र जैन परम्परा ने हिन्दू परम्परा का ही अनुसरण किया है ।
जैन कृष्णकथा में भी मुख्य-मुख्य प्रसंग, उनके क्रम एवं पात्र के स्वरूप आदि दीर्घकालीन परम्परा से नियत थे । अतः जहाँ तक कथानक का सम्बन्ध है जैन कृष्णकथा पर आधारित विभिन्न कृतियों में परिवर्तनों के लिए स्वल्प अवकाश रहता था । फिर भी कुछ छोटी-मोटी तफसीलों के विषय में, कार्यों के प्रवृत्ति नियमों के विषय में एवं निरूपण की इयत्ता के विषय में एक कृति और दूसरी कृति के बीच पर्याप्त मात्रा में अन्तर रहता था। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के कृष्णचरित्रों की भी अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं । और उनमें से कोई एक रूपान्तर के अनुसरणकर्ताओं में भी आपस में कुछ भिन्नता देखी जाती है। मूल कथानक को कुछ विषयों में सम्प्रदायानुकूल करने के लिए कोई सर्वमान्य प्रणालिका के अभाव में जैन रचनाकारों ने अपने-अपने मार्ग लिये हैं ।
जैन कृष्णचरित्र के अनुसार कृष्ण न तो कोई दिव्य पुरुष थे, न तो ईश्वर के अवतार या 'भगवान स्वयं' । वे मानव ही थे हालांकि एक असामान्य शक्तिशाली वीरपुरुष एवं सम्राट थे। जैन पुराणकथा के अनुसार प्रस्तुत कालखण्ड में तिरसठ महापुरुष या समारुष हो गए। चौवीस तीर्थकर, बारह वर्ती, नो वासुदेव (या नारायण), नौ बलदेव और नौ प्रतिबासुदेव वासुदेवों की समृद्धि, सामर्थ्य एवं पदवी पतियों से आधी होती थी। प्रत्येक वासुदेव तीन खण्ड पर शासन चलाता था । वह अपने प्रतिवासुदेव का युद्ध में संहार करके वासुदेवत्व प्राप्त करता था और इस कार्य में प्रत्येक बलदेव उसका साहाय्य करता था। राम, लक्ष्मण और रावण क्रमशः आठवें बलदेव, वासुदेव ओर प्रतिवासुदेव थे। नवीं त्रिपुटी थी कृष्ण, बलराम और जरासन्ध ।
तिरसठ महापुरुषों के चरित्रों को ग्रथित करने वाली रचनाओं को 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र' या त्रिषष्टिमहींपुरुषपरित्र' ऐसा नाम दिया जाता था जब नी प्रतिवासुदेवों की गिनती नहीं की जाती थी तब ऐसी रचना 'चतुष्पंचाशत्महापुरुषचरित्र' कहलाती थी । दिगम्बर परम्परा में उनको 'महापुराण' भी कहा जाता था । महापुराण में दो भाग होते थे आदिपुराण और उत्तरपुराण आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती के चरित्र दिये जाते थे । उत्तरपुराण में शेष महापुरुषों के चरित्र ।
सभी महापुरुषों के परित्रों का निरूपण करने वाली ऐसी रचनाओं के अलावा कोई एक तीर्थकर, वासुदेव आदि के चरित्र को लेकर भी रची जाती थीं । ऐसी रचनाएँ 'पुराण' नाम से ख्यात थीं । वासुदेव का चरित्र तीर्थकर अरिष्टनेमि के चरित्र के साथ संलग्न था उनके चरित्रों को लेकर की गयी रचनाएँ 'हरिवंश' या 'अरिष्टनेमिपुराण' के नाम से ज्ञात हैं।
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