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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनदन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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व्याकरण साहित्य में पाणिनीय व्याकरण सर्वाधिक प्रसिद्ध है । यद्यपि वह अपने आप में परिपूर्ण है फिर भी कहीं-कहीं कात्यायन के वात्तिक और पतंजलि के भाष्य का सहारा लिया जाता है। इसलिए इस व्याकरण की पूर्णता तीन व्याकरण ग्रन्थों के संयोग से है। सिद्धान्तकौमुदी के निर्माता भट्टोजी दीक्षित ने अपनी रचना के प्रारम्भ में मुनित्रय-पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि को नमस्कार किया है। पाणिनि का व्याकरण अपने आप में परिपूर्ण होता तो आचार्य हेमचन्द्र के लिए किसो कवि को यह नहीं कहना पड़ता
कि स्तुमः शब्द पाथोधेहेमचन्द्र यतेर्मतिम् ।
एकेनापि हि येनेदृक् कृतं शब्दानुशासनम् ॥ भिक्षुशब्दानुशासन में भी उपर्युक्त तीनों ग्रन्थों का सार संगृहीत है। इसकी पूर्णता या अपूर्णता के बारे में निर्णय देना विद्वानों का काम है पर इसके अध्ययन से ज्ञात हुआ कि इसके कई उदाहरण बहुत प्राचीन हैं तथा कुछ उदाहरणों में वैदिक शब्दावलि का प्रयोग हुआ है। इन्हें याद रखने के लिए विद्यार्थियों के सामने कुछ कठिनाई पैदा होती है।
पाणिनीय व्याकरण और भिक्षुशब्दानुशासन के कतिपय स्थलों में जो भेद हैं, उसे यहाँ उल्लिखित किया जा रहा है--
भिक्षुशब्दानुशासन
पाणिनीय व्याकरण
दीर्घ लकार नहीं है। वत्सर शब्द नहीं है, इसलिए वत्सरार्णम् रूप नहीं बनता है। प्लुत से कोई विधि नहीं है।
यह नियम नहीं है।
१. लकार के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों प्रकार हैं । २. प्र०वसन, कम्बल, दश, ऋण, वत्सर और वत्सतर
शब्दों से परे ऋण हो तो उसे आर आदेश होता है। ३. ह्रस्व और दीर्घ की भाँति प्लुत शब्दों से भी विशेष
कार्य होता है। ४. समासान्त अध्यर्ध और अर्ध शब्द पूर्व में हो ऐसे पूर
णार्थक प्रत्ययान्त शब्द क प्रत्यय होने पर संख्यावत्
हो जाते हैं। ५. डयत् प्रत्ययान्त शब्दों से परे जसु को इश् विकल्प
से होता है, अत: त्रये, त्रया ये दो रूप बनते हैं। ६. नुम् प्रत्यय के विषय के अप् शब्द शब्द की उपधा विकल्प
से दीर्घ होती है-स्वाम्पि, स्वम्पि । ७. नपुसक लिंग में जरस् शब्द से परे सि और अम् का लोप विकल्प से होता है । अतः जरः, जरसम् ।
आसन शब्द को आसन् होता है। ६. शकारान्त शब्द और राज् भ्राज्-त्रश्च भ्रज आदि के
अन्त को ष होता है छ को श करने वाला सूत्र दूसरा है । १०. उपाध्याय की स्त्री के लिए उपाध्याया और उपाध्यायी
ये दो प्रयोग है । अध्यापिका के लिए केवल उपाध्याय शब्द है।
इयत् का ग्रहण नहीं किया है इस लिए केवल 'त्रया' बनता है। इस सम्बन्ध में कोई विधान नहीं है।
विकल्प का विधान नहीं है।
आस्य शब्द को आसन् आदेश होता है। इनके साथ छकार को भी पकार होता है।
जो स्वयं अध्यापिका है वह उपाध्याया अथवा उपाध्यायी कहलाती है।
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