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राजस्थान का जन संस्कृत साहित्य 17 डॉ. प्रेमचन्द रांवका, प्राध्यापक, राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, मनोहरपुर (जयपुर)
भारतीय इतिहास में राजस्थान का गौरवपूर्ण स्थान है। यहाँ की धरती वीर-प्रसिवनी होने साथ-साथ मनीषी साहित्यकारों एवं संस्कृत भाषा के उद्भट विद्वानों की कर्मस्थली भी रही है। एक ओर यहाँ की कर्मभूमि का कण-कण वीरता एवं शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहा है तो दूसरी ओर भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के गौरवस्थल भी यहाँ पर्याप्त संख्या में मिलते हैं । यहाँ के वीर योद्धाओं ने अपनी-अपनी जननी-जन्मभूमि की रक्षार्थ हँसते-हँसते प्राणों को न्यौछावर किया तो यहाँ होने वाले आचार्यों, ऋषि-मुनियों-भट्टारकों, साधु-सन्तों एवं विद्वान् मनीषियों ने साहित्य की महती सेवा की और अपनी कृतियों द्वारा प्रजा में राष्ट्रभक्ति, नैतिकता एवं सांस्कृतिक जागरूकता का प्रचार किया। यही कारण है कि प्रारम्भ से ही राजस्थान प्रजा एवं शासन के अपूर्व सहयोग से संस्कृति, साहित्य, कला एवं शौर्य का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ के रणथम्भौर, कुम्भलगड़, चितौड़, भरतपुर, अजमेर, मण्डोर, और हल्दीघाटी जैसे स्थान यदि वीरता, त्याग एवं देशभक्ति के प्रतीक हैं, तो जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर, नागौर, अजमेर, आमेर, उदयपुर, डूंगरपुर, सागवाड़ा, गलियाकोट आदि कितने ही नगर ग्रन्थकारों एवं साहिन्योपासकों के पवित्र स्थल हैं, जिन्होंने अनेक संकटों एवं झंझावातों के मध्य भी साहित्य की धरोहर सुरक्षित रखा है। वस्तुतः शक्ति एवं भक्ति का अपूर्व सामंजस्य इस राजस्थान प्रदेश की अपनी विशेषता है।
राजस्थान की इस पावन भूमि पर अनेकों सन्त, मनीषी विद्वान् हुए, जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा भारतीय वाङमय के भण्डार को परिपूरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जैन-मुनियों एवं विद्वानों का राजस्थान प्रान्त सैकडों वर्षा तक केन्द्र रहा है। डूंगरपुर, सागवाड़ा, नागौर, अजमेर, बीकानेर, जैसलमेर, चित्तौड़ आदि इन सन्त विद्वानों के मुख्य स्थान थे, जहाँ से वे राजस्थान में ही नहीं भारत के अन्य प्रदेशों में विहार करते तथा अपने ज्ञान एवं आत्म-साधना के साथ-साथ जनसाधारण के हितार्थ उपदेश देते थे। ये सन्त विद्वान विविध भाषाओं के ज्ञाता थे। भाषाविशेष से कभी मोह नहीं रखते थे। जनसामान्य को रुचि एवं आवश्यकतानुसार वे संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं में साहित्य संरचना करते । आत्मोन्नति के साथ जनकल्याण इनके जीवन का उद्देश्य होता था। राजस्थान में जैन साहित्य के विश्रत गवेषी विद्वान् डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल के शब्दों में वेद. स्मृति, उपनिषद्, पुराण, रामायण एवं महाभारत काल के ऋषियों एवं सन्तों के पश्चात् भारतीय साहित्य की जितनी सेवा एवं उसकी सुरक्षा जैन सन्तों ने की उतनी अधिक सेवा किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म के साधुवर्ग द्वारा नहीं हो सकी है।
राजस्थान में होने वाले इन जैन सन्तों ने स्वयं तो विविध भाषाओं में सैकड़ों-हजारों कृतियों का सृजन किया ही; किन्तु अपने पूर्ववर्ती आचार्यों, साधओं, कवियों एवं लेखकों की रचनाओं को भी बड़े प्रेम, श्रद्धा एवं उत्साह से संग्रह किया। एक-एक ग्रन्थ की अनेकानेक प्रतियाँ लिखवाकर विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में विराजमान की और जनता को पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए प्रेरित किया। राजस्थान के सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थागार उनकी साहित्य-सेवा के ज्वलन्त उदाहरण हैं। ये जैन सन्त संग्रह की दृष्टि से कभी जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद के व्यामोह में नहीं पड़े । उन्हें जहाँ से भी लोकोपकारी साहित्य उपलब्ध हुआ, उसे शास्त्र-भण्डारों में संग्रहीत किया और
१ मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : राजस्थानी जैन संतों की साहित्य-साधना, पृ० ७८३
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