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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
१५वीं शती के प्रारम्भ का ही है, क्योंकि इस वस्त्र-पट्ट के नीचे जो आचार्यश्री का चित्र है उनका समय संवत् १४०० के आसपास का है। इस समय वस्त्र पट्ट के ऊपर दोनों ओर पार्श्व में यक्ष और पद्मावती देवी के सुन्दर चित्र हैं । बीच में भगवान पार्श्वनाथ के मन्त्र लिखे हुए हैं और नीचे आचार्य-चित्र है। आकार में भी यह काफी बड़ा है। ये पट्ट पूजित रहे हैं।
१५वीं शताब्दी का ही एक छोटा वस्त्र पट्ट हमारे संग्रह में है, जो पहले वाले की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है, जिसमें अपभ्रंश शैली के सुन्दर चित्र हैं। इस तरह के कई वस्त्र पट्ट १५वीं के उत्तरार्द्ध के हमारे देखने में आये हैं, जिनमें से एक बड़े पट्ट का फोटो हमारे संग्रह में है । बहुमूल्य सचित्र वस्त्र पट्ट लंदन के म्युजियम में प्रदशित है। कुछ वस्त्र पट्ट जैन तीर्थों के चित्र वाले भी देखने को मिले, जिनसे उस समय उन तीर्थों को सही स्थिति का परिचय मिल जाता है और दृश्य सामने आ जाता है। तीर्थ यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण जैसलमेर में चित्रित किया हुआ वस्त्र पट्ट अभी जयपुर के खरतरगच्छ ज्ञान भण्डार में देखने को मिला। इसी प्रकार सूरिमन्त्र पट्ट, वर्द्ध मान विद्या पट्ट, ऋषिमण्डल मन्त्र पट, विजय मन्त्र पट्ट, पार्श्वनाथ मन्त्रभित पट्ट आदि अनेकों प्रकार के प्राचीन वस्त्र पट्ट प्राप्त होते हैं और आज भी ऐसे वस्त्र पट्ट बनते हैं ।
जैन तीर्थों सम्बन्धी कई बड़े-बड़े वस्त्र पट्ट गत दो अढाई सौ वर्षों में बने हैं। उनमें से एक शत्रुजय तीर्थ का बड़ा पट्ट मेरे संग्रह में भी है । वैसे प्रायः सभी बड़े मन्दिरों और उपासरों में शत्रुजयतीर्थ के पट्ट पाये जाते हैं क्योंकि चैत्री पूर्णिमा आदि के दिन उन पट्टों के सामने तीर्थ वन्दन करने की प्राचीन प्रणाली जैन समाज में चली रही है। मैंने कुछ बड़े-बड़े पट्ट ऐसे देखे हैं जिनमें कई तीर्थों का एक साथ चित्रण हुआ है। इन पट्टों से उस समय उन तीर्थों की क्या स्थिति थी, यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है।
मन्त्र-तन्त्र आदि के पट्टों की तरह भौगोलिक वस्त्र पट्ट भी १५वीं शताब्दी के बराबर बनते रहे हैं जिनमें जम्बुद्वीप, अढाई द्वीप और अन्य द्वीप समुद्रों तथा १४ राजूलोक के पट्ट विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनमें से कई पट्ट तो बहुत बड़े बड़े बनाये गये जिनमें देवलोक, मनुष्यलोक, नरकलोक, इन तीनों लोकों, द्वीप, समुद्रों के साथ अनेक पशु-पक्षियों, मच्छी-मच्छ आदि जलचर जीवों, देवताओं और देव-विमानों आदि के छोटे-छोटे सैकड़ों चित्र पाये जाते हैं । एक तरह से जैन भौगोलिक मान्यताओं को जानने के लिए वे सचित्र एलबम के समान हैं। हमारे कलाभवन में नये, पुराने अनेक प्रकार के वस्त्र पट्ट संग्रहीत है और बीकानेर तथा अन्य राजस्थान के जैन भण्डारों में सचित्र वस्त्र पट्ट काफी संख्या में प्राप्त हैं। इनमें विविधता का अंकन है और रंगों आदि की वैविध्यता भी पाई जाती है। ऐसे ही कुछ भौगोलिक और तंत्र मन्त्र के पट्ट कागज पर भी चित्रित किये हुए प्राप्त हैं । वास्तव ऐसे चित्रों की एक लम्बी परम्परा रही है और इस पर एक सचित्र स्वतन्त्र पुस्तक पुस्तक भी लिखी जा सकती है। दिगम्बर समाज में ऐसे वस्त्र पट्टों को 'मांडण' कहते हैं और वे मांडण आज भी अनेक प्रकार के बनते हैं और उनका पूजा-विधान प्रचलित है।
भित्ति-चित्र भी राजस्थान के अनेक जैन मन्दिरों, उपासरों आदि में प्राप्त हैं । पर प्राचीन भित्ति-चित्र बहुत से खराब हो गये हैं, इसलिए इन पर पुताई या कली आदि करके नये चित्र बना दिये गये, फिर भी २००-३०० वर्षों के तो भित्ति-चित्र कई जैन मन्दिरों में पाये जाते हैं । इन चित्रों में तीर्थकर का जन्माभिषेक, समवसरण, रथयात्रा, तीर्थों और जैन महापुरुषों के जीवन सम्बन्धी सैकड़ों प्रकार के चित्र पाये जाते हैं और यह परम्परा आज की चालू है। बीकानेर के कई मन्दिरों में २०० वर्षों तक के भित्ति-चित्र सुरक्षित हैं, जिनमें कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़े महत्त्व के हैं । यहाँ गौड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर में सम्मेद शिखर आदि के अतिरिक्त जैनाचार्यों, योगी ज्ञानसार, कई भक्त श्रावक जनों आदि के चित्र प्राप्त हुए हैं। भांडासरजी के मन्दिर में गुम्बज और नीचे की गोलाई में बीकानेर के विज्ञप्ति-पत्र आदि अनेक महत्त्वपूर्ण चित्र हैं। बोरों के सेरी के महावीर मन्दिर में तो २५-३० वर्ष पहले चित्रित भगवान महावीर के २७ भव और अनेक जैन कथानकों के चित्रों से तीनों ओर की दीवारें भरी हुई हैं। दादावाड़ियों में श्री जिनदत्त
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