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संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं। १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, निरपेक्ष व्यवहार, क्रूर व्यवहार विश्वासवात आदि विकसित होते हैं२. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होती हैं । ३. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, मैत्रीपूर्ण व्यवहार और क्रूर व्यवहार होता है। इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है।' इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है उन्हीं के कारण सारा सामाजिक जीवन दुषित होता है। जैन दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन दर्शन अपने साधना - मार्ग के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है ।
२.
आर्थिक वैषम्य
आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत् के सम्बन्धों से उत्पन्न हुई विषमता है। चेतना का जब भौतिक जगत् से सम्बन्ध होता है तो उसे अनेक वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं । यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है तो एक और संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है; इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विनता के बीच का वचन होता। जैसे-जैसे एक ओर संग्रह बढ़ता है, दूसरी ओर गरीबी बढ़ती है और परिणामस्वरूप आर्थिक वैषम्य बढ़ता जाता है। आर्थिक वैस्य के मूल में संग्रह भावना ही अधिक है। कहा यह जाता है कि जमाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन होती है, लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है। स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है और शायद विज्ञान हमें इस दिशा में सहयोग भी दे सकता है लेकिन कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं । उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते हैं कि "गरीबी स्वयं में कोई बहुत बड़ी चीज नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाइयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा तो गरीबी अपने आप दूर हो जाएगी । वस्तुतः आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो परिषद् के विसर्जन से ही आर्थिक वैयम्य समाप्त किया जा सकता है। जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक समता नहीं आ सकती है ।
आर्थिक वैम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव है और जैन दर्शन अपने अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा इस आर्थिक वैषम्य के निराकरण का प्रवास करता है। जैन आचार दर्शन में गृहस्थ जीवन के लिए भी जिस परिग्रह के सीमांकन का विधान किया गया है वह आर्थिक वैवस्य के निराकरण का एक प्रमुख साधन हो सकता है । आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद की चर्चा करते हैं उसका दिशा-संकेत महावीर ने गृहस्थ की व्रत व्यवस्था में किया था ।
जैन आचार दर्शन एक मूल्यांकन १४३
आर्थिक वैम्य का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना के द्वारा ही सम्भव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता की बात करना चाहते हैं तो हमें व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारण करती ही होगी । परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक जीवन में महत्व का सृजन कर सकता है। जैन दर्शन का अपरिग्रह सिद्धान्त इस सम्बन्ध में पर्याप्त सिद्ध होता है। वर्तमान युग में मार्क्स ने आर्थिक वैषम्य को दूर करने का जो सिद्धान्त साम्यवादी समाज के रचना के रूप में प्रस्तुत किया वह विनताओं के निराकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है लेकिन उसकी मूलभूत कमी यह है कि वह मानव समाज पर ऊपर से थोपा जाता है उसके अन्दर से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य दवाबों से वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती उसी प्रकार केवल के बल कानून पर लाया गया। आर्थिक साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन नहीं करता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि
१. देखिए नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २
२. जैन प्रकाश, ८ अप्रेल १६६६, पृ० ११.
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