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अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य
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अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य संस्कृत एवं प्राकृत की सुदीर्य परम्परा से प्रभावित है। किन्तु उन पर प्राकृत का सीधा प्रभाव है। अपभ्रंश में शास्त्रीय शैली के प्रबन्ध काव्य नहीं हैं । सम्भवतः लोकभाषा होने के कारण भी अपभ्रंश में विशुद्ध महाकाव्य लिखे जाने की परम्परा प्रारम्भ नहीं हुई। प्रबन्धकाव्य की कुछ निश्चित विशेषताओं के आधार पर अनश में जो प्रबन्ध काव्य हैं उन्हें तीन प्रकार का माना जा सकता है-पौराणिक, धार्मिक, एवं रोमांचक । यह विभाजन भी विशिष्ट गुणों की प्रधानता के कारण है अन्यया अपभ्रंश की प्राय: सभी रचनाएँ पौराणिकता, धार्मिकता एवं रोमांचकता से किसी न किसी मात्रा में युक्त होती है ।
पौराणिक प्रबन्धकाव्य
___ अपभ्रंश में पौराणिक कथावस्तु को लेकर जो रचनाएँ लिखी गयी हैं उनमें कुछ महाकाव्य हैं, कुछ चरितकाव्य । किन्तु उनकी संगठना एक तरह की है। जैनपरम्परा के अनुसार महापुराण वह है जिसमें वर्णन हो । अधिकतर त्रेसठशलाका पुरुषों का जीवन-चरित इनमें वणित होता है। इस प्रकार के अपभ्रंश के पौराणिक प्रबन्धकाव्य निम्न हैं
(१) हरिवंशपुराण (रिट्ठणेमिचरिउ)-महाकवि स्वयम्भू । इसमें ११२ सन्धियाँ हैं तथा श्रीकृष्ण के जन्म से हरिवंश तक की भवावली का विस्तृत वर्णन है।
(२) हरिवंशपुराण-महाकवि धवल । १८ हजार पद्यों में विरचित यह प्रबन्धकाव्य अभी तक अप्रकाशित है।
(३) महापुराण-पुष्पदन्त । इसमें प्रारम्भ में २४ तीर्थंकरों तथा बाद राम और कृष्ण की जीवनगाथा विस्तार से वणित है।
(४) पाण्डवपुराण-यश:कीति । इसमें ३४ सन्धियों में पाँच पाण्डवों की जीवनगाथा वर्णित है।
(५) हरिवंशपुराण-श्रुतकीर्ति । ४४ सन्धियों में कौरव-पाण्डवों की गाथा का वर्णन । हरिवंशपुराण नाम से अन्य रचनाएँ भी अपभ्रंश में उपलब्ध हैं।
(६) पउमचरिउ-स्वयम्भू । इसमें रामकथा का विस्तार से वर्णन है। चरित नामान्त होने पर भी विषयवस्तु की दृष्टि से इसे पौराणिक प्रबन्ध ही मानना होगा। यद्यपि इसमें पौराणिकता अन्य प्रबन्धों की अपेक्षा कम है । कथा का विस्तार एक निश्चित क्रम से हुआ है।
___ अपभ्रंश के इन पौराणिक प्रबन्धकाव्यों में राम और कृष्ण कथा की प्रधानता है। रामायण और महाभारत इनके उपजीव्य काव्य थे। यद्यपि इन कवियों ने अपनी प्रतिभा और पाण्डित्य के कारण इन प्रचलित कथाओं में पर्याप्त परिवर्तन किया है तथा अपनी मौलिकता बनाये रखी है। इन प्रबन्धकाव्यों में वर्णन की दृष्टि से भी प्रायः समानता है यथा
१. सभी के प्रारम्भ में तीर्थंकरों की स्तुति । २. पूर्व कवियों एवं विद्वानों का स्मरण । ३. विनम्रता-प्रदर्शन । ४. ग्रन्थ रचना का लक्ष्य व काव्य विषय का महत्त्व । ५. सज्जन-दुर्जन वर्णन । ६. आत्म-परिचय। ७. श्रोता-वक्ता शैली।
प्रायः प्रत्येक पौराणिक प्रबन्ध में समवसरण की रचना में गौतम गणधर और श्रेणिक उपस्थित रहते हैं तथा श्रेणिक के पूछने पर गणधर अथवा वर्धमान कथा का विस्तार करते हैं। काव्य सम्बन्धी इन रूढ़ियों के अतिरिक्त प्रबन्धकाव्यों में कुछ पौराणिक अथवा धार्मिक रूढ़ियों का भी प्रयोग देखने को मिलता है। यथा-१. सृष्टि का
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