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जैन- कथा - साहित्य में नारी ६४३
श्यामा, नवांगी, नवयौवना, गौरांगी, गुणवन्ती, पद्मणी, पीनस्तनी और हस्तमुखी आदि चालीस रूपों में विभक्त हुई हैं।"
महादेवी, शिवा, जगदम्बा, भद्रा, रौद्रा, गौरी, बुद्धि, छाया, शक्ति, कृष्णा, शान्ति, लज्जा, धढा, कान्ति, दया, तृप्ति आदि के रूपों में आपूत नारी प्राचीन जैन साहित्य में बहु प्रशंसित अवश्य हुई है लेकिन बहुपत्नीत्व की प्रथा ने उसे समय-समय पर अधिक पीड़ित किया है ।
जैन धर्मग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि प्राचीनकाल में प्रतिष्ठित धनी परिवारों में बहुपत्नीत्व का प्रचुरता से प्रचलन था । वही व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित माना जाता था जो अनेक पत्नियाँ रखता था । श्रावक लोग भी अनेक पत्नियाँ रखते थे। राजमल द्वारा रचित लाटी संहिता वि० सं० १६४१ की एक प्रशस्ति में भासू नाम के एक श्रावक की मेधा, रूपिणी और देविला नाम की तीन पत्नियों का उल्लेख मिलता है आगे इसी ग्रन्थ में संघपति भासू के नाती न्योता को पचाही और बौराड़ी नामक दो पत्नियों और संघपति मोल्हा की छाजाही और विधही आदि तीन पत्नियों का उल्लेख किया गया है। इस काल के (वि० सं० १०७०) अमितगति के एक पुराने ग्रन्थ धर्मपरीक्षा की मण्डपकौशिककथा के प्रकरण में आये कुछ श्लोकों से उन दिनों विधवा-विवाह के प्रचलन की सम्पुष्टि होती है। जैन धर्म-ग्रन्थों में इस बात के भी अनेक सुपुष्ट प्रमाण मिलते हैं कि समाज के अन्य वर्गों के समान जैन-सम्प्रदाय में भी दासियाँ रखने की प्रथा थी । 'दासः क्रय की तकर्मकर:' के अनुसार खरीदी हुई नारियाँ ही दासी कहलाती थीं। जिन स्त्रियों को विधिवत् विवाह न करके वैसे ही घर में रख लिया जाता था उन्हें बेटिका कहा जाता था । चेटिका सुरतप्रिया और भोग्या होती थीं। जो दासियाँ खरीदी जाती थीं उनमें से कुछ को पत्नी के रूप में भी स्वीकार कर लिया जाता था । ऐसी स्त्रियों को रखेल या परिग्रहीता की संज्ञा दी गई । उन दिनों गृहस्थों का ब्रह्मचर्य अणुव्रत अथवा स्वदारसंतोष प्रत यही था कि वे खरीदी हुई दासियों और धर्मपत्नी को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों को माता, बहन और बेटी समझते थे ।
नारी के भेदों की चर्चा भी जन-प्रम्यों में प्रचुरता से हुई है।"
जंन कथा-साहित्य में नारो-भेद
विभिन्न देशों की कमनीय नारियों को उनके विशिष्ट अंग-सौन्दर्य को ध्यान में रखते हुए विभाजित किया गया है - केरल देश ( अयोध्यापुरी का दक्षिण दिशावर्ती देश) की स्त्रियों के मुखकमलों को उस प्रकार विकसित करने वाले जिस प्रकार सूर्य कमलों को विकसित करता है, बंगीदेश (अयोध्या का पूर्वदिशावर्ती देश) की कमनीय कामिनियों के कानो को उस प्रकार विभूषित करने वाले जिस प्रकार कर्णपूर (कर्णाभूषण) कानों को विभूषित करता है; चोल-देन (अयोध्या की दक्षिण दिशा सम्बन्धी देश) की रमणियों के कुच (स्तन) रूपी फूलों की अधखिली कलियों से कीड़ा करने वाले, पल्लवदेश (पंच प्रामिल देश) की रमणियों के वियोग दुःख को उत्पन्न करने वाले, कुन्तल देश ( पूर्वदेश ) | की स्त्रियों के केशों को विरलीकरण में तत्पर, मलयाचल की कमनीय कामिनियों के शरीर में नखक्षत करने में तत्पर पर्वत सम्बन्धी नगरों की रमणियों के दर्शन करने में विशेष उत्कंठित, कर्नाटक देश की स्त्रियों को कपट के साथ आलिंगन करने में चतुर, हस्तिनापुर की स्त्रियों के कुच - कलशों को उस प्रकार आच्छादित करने वाले जिस प्रकार कंचुक ( जम्फर आदि वस्त्र विशेष) कुचकलशों को आच्छादित करता है। ऐसे हे राजन! आप काश्मीर देश की कमनीय कामिनियों के मस्तकों को कुकुम तिलक रूप आभूषणों से विभूषित करते हैं ।
१. सम्पादक : क्षेमचन्द्र सुमन नारी तेरे रूप अनेक, भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखित, पृ० ४२ २. नारी तेरे रूप अनेक भूमिका, पृ० ४१-४२
३. श्रीमत्सोमदेवसूरिविरचित: यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य, पृ० १८
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