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शिक्षा और संचार-साधनों की भूमिका
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अब मुद्रित शब्दों की दुनियाँ का भी जायजा लें। मुद्रित शब्द अपने किसी भी रूप (समाचार-पत्र, पत्रिका, पुस्तक) में देश के बड़े जन समुदाय तक नहीं पहुंच पाया है। इसका कारण अशिक्षा ही नहीं, लोगों की गरीबी भी है। इसके अतिरिक्त इस स्थिति का दायित्व मुद्रित सामग्री विरोधी प्राथमिकताओं और दोषपूर्ण एवं उपभोक्ता-विरोधी वितरण व्यवस्था पर भी है। जो लोग दो वक्त की रोटी तक जुटा पाने की हैसियत नहीं रखते हैं वे पुस्तक-पत्रिकाएँ क्योंकर खरीद सकते हैं ? जो लोग खरीदने की कामना रखते हैं वे किताब खरीदने की बजाय एक और कमीज सिलवाना या सिनेमा देखना या ऐसा ही कोई और उपयोग अपने पैसे का करना पसन्द करते हैं। इस तरह लोगों की प्राथमिकता सूची में पुस्तकोंपत्रिकाओं का स्थान बहुत नीचे आता है। जो लोग इन दोनों ही बाधाओं को पार कर पुस्तक खरीदने निकल ही पड़ते हैं, उनको वह पुस्तक मिलती नहीं जो वे पढ़ना चाहते हैं, या जो उन्हें पढ़नी चाहिए। भारतीय प्रकाशक वैयक्तिक पाठक के लिये पुस्तक व्यवसाय नहीं करता है। उसकी रुचि पुस्तकालयों की थोक बिक्री में ही है। उनके लिए वह तीस प्रतिशत कमीशन का प्रावधान भी रखता है, इस तरह प्रकाशक जो पुस्तक पाठक को नकद भुगतान पर पचास रुपये में बेचता है वही पुस्तक वह पुस्तकालयों को उधारी पर पेंतीस रुपये में बेच देता है. लाइब्रेरियन का कमीशन, व्यापारी का मुनाफा, व्याज, खर्चा ये सब तो है ही । यदि वह चाहे तो पचास रुपए वाली पुस्तक ग्राहक को सीधे, बिना किसी बिचोलिये के बीस-पच्चीस रुपए में बेच सकता है, पर वह बेचना चाहता ही नहीं। जब पुस्तकालयों को लूटकर उसका काम आसानी से चल रहा है, उसका धन्धा फल-फूल रहा है तो वह एक-एक पुस्तक के ग्राहक पर क्यों श्रम करे ? उन ग्राहकों के लिए उसने पाकेट बुक्स के प्रकाशन का धन्धा चला रखा है, विदेशों में भले ही पाकेट बुक्स में गम्भीर पुस्तकें प्रकाशित होती हों, हमारे यहाँ पाकेट बुक्स रोमांटिक व अपराध साहित्य का पर्याय बन चुकी है। प्रत्येक प्रकाशक के पास अपने कुछ ट्रेडमार्की लेखक हैं जो घुमा-फिराकर फार्मूलाबद्ध लेखन करते रहते हैं। इन पुस्तकों की वितरण व्यवस्था भी बहुत अच्छी है। किसी भी शहर कस्बे, गांव के रेल या बस स्टेण्ड पर आपको ये किताबें मिल जायेंगी। इस तरह हमारा प्रकाशक सीधे-साधे वह बेच रहा है जो वह बेचना चाहता है, अगर वह प्रेमचन्द, यशपाल निराला को नहीं बेचना चाहता तो आप उसका कुछ नहीं कर सकते ।
इधर कुछ वर्षों से राजनीति की भीतरी कथाओं के लेखन-प्रकाशन की एक नई प्रवृत्ति उभरी है। इस लेखन को गम्भीर राजनैतिक विश्लेषण की ओक्षाओं के साथ नहीं पढ़ा जाना चाहिए । वास्तव में यह राजनीति, कामशास्त्र और किस्सागोई का अजीब-सा मिश्रण है। इस लेखन में मृत राजनेताओं के बारे में कुछ भी लिख देने की एक नई नैतिकता और विकसित हो रही है। कुछ लेखकों और प्रकाशकों ने इसमें भी खूब कमाया है। पाठक की परवाह किसको है ? घोड़ा घास से यारी करे तो ...?
समाचार पत्रों की दशा भी इनसे भिन्न नहीं है। उनमें मन्त्रियों के बासी भाषण, मिथ्या घोषणाएँ या अपराध की सनसनीखेज खबरें तो मिलेंगी पर आम आदमी नदारद मिलेगा। किसी अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के जुखाम पर डाक्टरी बुलेटिन तो होगा पर बस दुर्घटना में मरे व्यक्तियों के नाम गायब होंगे । अपराध का विस्तृत वर्णन तो होगा पर उनको मिलने वाली या मिली सजा का ब्योरा देने की आवश्यकता नहीं समझी जायेगी। यह तो प्रान्तीय और राष्ट्रीय समाचार पत्रों की स्थिति है। स्थानीय समाचार पत्रों के बारे में तो कुछ भी कहना अनावश्यक है। उनका एकमात्र उद्देश्य अपने स्वामियों का भरण-पोषण ही होता है। इनकी भूमिका ब्लेकमेलिंग की श्रेणी में आती है।
पिछले कुछ वर्षों से हमारे यहाँ जिस तरह से पत्रिकाओं की बाढ़-सी आई है उससे यह समझने का भ्रम हो सकता है कि लोगों में पढ़ने की न रुचि का विकास हुआ है, लेकिन सही स्थिति यह है कि ये पत्रिकाएँ पाठकों की रुचि और माँग का नहीं, प्रकाशकों को मुनाफाखोर मनोवृत्ति का परिणाम है। आज हमारी पत्रिकाओं में अपराध, रहस्य, रोमांच, भ्रष्टाचार, ऐयाशी, नग्नता, अश्लीलता आदि का अनुपात बढ़ता ही जा रहा है। अदालतों से ली गई मुकदमों की तफसील के आधार पर अपराध कथाओं की इन दिनों इतनी भरमार है कि पुरानी पत्रिकाएँ अपर्याप्त सिद्ध हो रही हैं, नई-पत्रिकाओं के प्रकाशन की अनिवार्यता उपस्थित होती जा रही है। दल-बदल भी तेजी से हो रहा है। छठे दशक में नई कहानी के विकास में अहम् भूमिका निबाहने वाली पत्रिकाएँ भी आज रहस्य-रोमांच व अपराध को समर्पित होती जा रही हैं। बड़ी ग्राहक संख्या वाली शालीन पत्रिकाएँ भी धीरे-धीरे बड़ी चालाकी से भूत-प्रेत की
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