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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
६. श्रीजिनराजसूरि कृत जिनकुशलसूरि स्तवन में
"हो अहिपुरमांहे दीपतउ, दादा देराउर सविशेष ।
हो जैसलगिरिवर पूजियइ, दादा भाजइ दुख अशेष ॥५॥" सुप्रसिद्ध कविवर समयसुन्दरोपाध्याय ने निम्नोक्त स्वतन्त्र स्तवन की रचना की है
नागौर मण्डन श्री जिनकुशलसूरिगीतम् उल्लट धरि अम आविया दादा भेटण तोरा पाय । बे कर जोड़ी वीनकुदादा आरति दूरि गमाय ॥१॥ इण रे जगत में नागोर नगीनइ दादो नागतउ । भाव भगति सुंभेटतां, भव दुख भागतउ ॥इण रे०॥ टेर।। को केहनइ को केहनइ दादा भगत आराधइ देव।। मई इकतारी आदरी दादा, एक करूं तोरी सेव ॥इण रे०॥२॥ सेवक दुखिया देखता दादा, साहिब सोभ न होय । सेवक नइ सुखिया करइ दादा, साचो साहिब सोय ॥इण०॥३॥ श्रीजिनकुशलसूरीसरू दादा, चिन्ता आरति चूरि । समयसुन्दर कहर माहरा दादा मनवंछित फल पूरि ॥इण०॥४॥
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जानन्नपि च यः पापम् शक्तिमान् न नियच्छति । ईशः सन् सोऽपि तेनैव कर्मणा सम्प्रयुज्यते ॥
-महाभारत, आदिपर्व १७९।११ जो मनुष्य शक्तिमान एवं समर्थ होते हुए भी आन-बूझकर पापाचार को नहीं रोकता, वह भी उसी पापकर्म से लिप्त हो जाता है।
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