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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किचन ।
विचारयन्नेवमनन्य मानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥' महाकवि दौलतरामजी ने भी इस सर्वव्यापक तथ्य को अपने सैद्धान्तिक ग्रन्थ 'छहढाला' में निरूपित कर जीव को आत्मोद्धार के लिए प्रेरित किया है
.. शुभ अशुभ करम फल जेते, भोग जिय एकहि ते ते।।
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ।। प्रबुद्ध मानव अपनी सतत साधना से इस दूषित मान्यता को नष्ट करता है और फिर वास्तविकता की ओर आकृष्ट होकर विचारने लगता है कि
हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जग का व्योहारा। तन संबंधी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥१॥ पुन्य उदय सुख का बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन जानन हारा ॥२॥ मैं तिहुंजग तिहुंकाल अकेला, पर संबंध हुआ बहु मैला । थिति पूरी कर खिरखिर जाहीं, मेरे हरख शोक कछु नाहीं ॥ ३ ॥ राग-भाव ते सज्जन मान, द्वेष-भाव ते दुर्जन माने ।
रागदोष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतन पद माहीं ॥४॥ किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल यह जीव स्वयं भोगता ही है। पापों के कष्टदायक परिणाम से यह चेतन किसी भी प्रकार से बच नहीं सकता। कवि धर्मपाल के शब्दों में कर्मभोग तो भोगने से ही छूट सकते हैं, इसमें अन्य की सहायता माँगना केवल मूढ़ता है
जिया तू दुख से काहे डरे रे । पहले पाप करत नहिं शंक्यो, अब क्यों साँस भरे रे ॥१॥ करम भोग भोगे ही छुटेंगे, शिथिल भये न सरे रे । धीरज धार मार मन ममता, जो सब काज सरे रे ॥ २ ॥ करत दीनता जन जन पे तु, कोई न सहाय करे रे।
'धर्मपाल' कह सुमरो जगतपति, वे सब विपति हरे रे ।। ३ ।। इस कर्मसिद्धान्त से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में इस जीव का (शुभ-अशुभ कर्म के सिवाय) कोई अन्य न तो हित करता है और न अहित । मिथ्यात्व कर्म के अधीन होकर धर्म-मार्ग का त्याग करने वाला देवता भी मर कर एकेन्द्रिय वृक्ष होता है। धर्माचरण रहित चक्रवर्ती भी सम्पत्ति न पाकर नरक में गिरता है। इसलिए अपने उत्तरदायित्व को सोचते हुए कि इस जीव का भाग्य स्व-उपार्जित कर्मों के अधीन है, धर्माचरण करना चाहिए। स्वामि कार्तिकेय मुनिराज ने उपर्युक्त सत्य को इस प्रकार प्रकाशित किया है
ण य कोवि देरु लच्छी ण कोवि जीवस्स कुणइ उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ॥ ३१६ ॥ देवो वि धम्मचत्तो मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि। चक्की वि धम्मरहिओ णिवडइ णरए ण सम्पदे होदि ॥ ४३५ ॥ -स्वामि कीर्तिकेयानुप्रेक्षा
र मन ममता,
न सहाय कर॥ ३ ॥
१. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, धार्मिक सहिष्णुता और तीर्थंकर महावीर (महावीर जयंती स्मारिका १९७३), पृ०१-५७ २. जैन शासन (पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर) पृ० २४१
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