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________________ -0 -Q ० ३६४ दुष्टदर्शन सम्पनत्वादि वचनं बादो, दृष्टीनां वादो दृष्टिवाद ।' दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं - १. पूर्वगत, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. परिकर्म, ५. चूलिका । पूर्व चौदह हैं । इनमें से बारहवें पूर्व का नाम 'प्राणावाय' है। इस पूर्व में मनुष्य के आभ्यन्तर अर्थात् मानसिक और आध्यात्मिक तथा बाह्य अर्थात् शारीरिक स्वास्थ्य के उपायों, जैसे यम, नियम, आहार, बिहार और औषधियों का विवेचन है। साथ ही इसमें दैविक, भौतिक, आधिभौतिक जनपदोध्वंसी रोगों की चिकित्सा का विस्तार से विचार किया गया है। आठवीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्य अकलंकदेव कृत 'तत्त्वार्थवात्तिक' (राजवार्तिक) नामक ग्रन्थ में प्राणावाय की परिभाषा बताते हुए कहा गया है- कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेद भूतिकर्मजागतिकप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वणितस्तत् प्राणावायम् । (अ०१, सू० २० ) अर्थात् -- जिसमें कायचिकित्सा आदि आठ अंगों के रूप में सम्पूर्ण आयुर्वेद, भूतशान्ति के उपाय, विषचिकित्सा ( जांगुलिप्रक्रम) और प्राण अपान आदि वायुओं के शरीरधारण करने की दृष्टि से विभाजन का प्रतिपादन किया गया है, उसे प्राणावाय कहते हैं । कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड लाख थी । आयुर्वेद के आठ अंगों के नाम हैं- कायचिकित्सा (मेडिसिन), शल्यतन्त्र (सर्जरी), शालाक्यतन्त्र ( ईअर, नोज, नोट- आपल्मोलाजी) भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतस्त्र, रसायनतन्त्र और वाजीकरणतन्त्र चिकित्सा के समस्त विषयों का समावेश इन आठों अंगों में हो जाता है । 1 श्वेताम्बर मान्यतानुसार दृष्टिवाद के 'प्राणायुपूर्व' में आयु और प्राणों के भेद-प्रभेद का विस्तार से निरूपण था । दृष्टिवाद के इस पूर्व' की पद संख्या दिगम्बर मत में १३ करोड़ और श्वेताम्बर मत में १ करोड़ ५६ 'स्थानांगसूत्र' (ठा० १० सूत्र ७४२) में दृष्टिवाद के निम्न दस पर्याय बताये गये हैं दृष्टिवाद, हेतुवाद, भूतवाद, तथ्यवाद, सम्यग्वाद, धर्मवाद, भाषा-विचय या भाषाविजय, पूर्वगत, अनुयोगगत और सर्वभूतवत्वाव उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार शरीरशास्त्र ( Anatomy and Physiolazy ) और चिकित्साशास्त्र – इन दोनों विषयों का वर्णन 'प्राणावाय' में मिलता है । Jain Education International निश्चय ही, बाह्य हेतु -- शरीर को सबल और उपयोगी बनाकर आभ्यन्तर - आत्मसाधना व संयम के लिए जैन विद्वानों ने प्राणावाय (आयुर्वेद) का प्रतिपादन कर अकाल जरा-मृत्यु को दूरकर दीर्घ और सशक्त जीवन हेतु प्रयत्न किया है। क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए शरीर का स्वस्थ रहना अनिवार्य है' धमार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । जैन-ग्रन्थ 'मूलवातिक' में आयुर्वेद प्रणयन के सम्बन्ध में कहा गया है—'आयुर्वेदप्रणयनान्यथानुपतेः । अर्थात् अकाल जरा ( वार्धक्य ) और मृत्यु को उचित उपायों द्वारा रोकने के लिए आयुर्वेद का प्रणयन किया गया है । मुनि, आर्यिका धावक और धाविका रूपी चतुविध संघ के लिए चिकित्सा उपादेय है। आगमों का अभ्यास, पठन-पाठन प्रारम्भ में जैन यति-मुनियों तक ही सीमित था । जैन धर्म के नियमों के अनुसार यति-मुनियों और आर्यिकाओं के रुग्ण होने पर वे श्रावक-श्राविका से अपनी चिकित्सा नहीं करा सकते थे । वे इसके लिए किसी से कुछ न तो कह सकते थे और न कुछ करा सकते थे । अतएव यह आवश्यक था कि वे अपनी चिकित्सा स्वयं ही करें अथवा अन्य यतिमुनि उनका उपचार करें। इसके लिए प्रत्येक यति-मुनि को चिकित्सा-विषयक ज्ञान प्राप्त करना जरूरी था । कालान्तर में जब लौकिक विद्याओं को यति-मुनियों द्वारा सीखना निषिद्ध माना जाने लगा तो दृष्टिवाद संज्ञक आगम, जिसमें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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