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जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य
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अनेक लौकिक विद्याएँ शामिल थीं, का पठन-पाठन-क्रम बन्द हो गया। शनैः-शनै: उसका लोप ही हो गया। यह परिस्थिति तीसरी-चौथी शती में आगमों के संस्करण और परिष्कार के लिए हुई 'माथुरी' और 'वाल्लभी' वाचनाओं से बहुत पहले ही हो चुकी थी । अतः इन वाचनाओं के काल तक दृष्टिवाद को छोड़कर अन्य एकादश आगमांगों पर तो विचार-विमर्श हुआ। पर 'दृष्टिवाद' की परम्परा सर्वथा लुप्त हो गयी अथवा विकलरूप में कहीं-कहीं प्रचलित रही।
सम्पूर्ण 'दृष्टिवाद' में धर्माचरण के नियम, दर्शन और नीति-सम्बन्धी विचार, विभिन्न कलाएँ, ज्योतिष, आयुर्वेद, शकुनशास्त्र, निमित्तशास्त्र, यन्त्र-तन्त्र आदि विज्ञानों और विषयों का समावेश होता है। दुर्भाग्य से अब दृष्टिवाद का कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। बाद के साहित्य में उनका विकीर्णरूप से उल्लेख अवश्य मिलता है। महावीरनिर्वाण (ईसवीपूर्व ५२७) के लगभग १६० वर्ष बाद 'पूर्वो' सम्बन्धी ग्रन्थ क्रमश: नष्ट हो गये। सब पूर्वो का ज्ञान अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को था। उनके १५१ वर्ष बाद हुए विशाखाचार्य से धर्मसेन तक दस पूर्वो' (अन्तिम चार पूर्वो को छोड़कर) का ज्ञान प्रचलित रहा। उसके बाद उनका ज्ञाता कोई आचार्य नहीं रहा । 'षट्खण्डागम' के वेदनानामक अध्याय के प्रारम्भिक सूत्र में दसपूर्वो और चौदहपूर्वो के ज्ञाता मुनियों को नमस्कार किया गया है। इस सूत्र की टीका में वीरसेनाचार्य ने स्पष्ट किया है कि पहले दस पूर्वो के ज्ञान से कुछ मुनियों को अनेक प्रकार की महाविद्याएँ प्राप्त होती हैं, उससे सांसारिक लोभ और मोह उत्पन्न होता है और वे वीतरागी नहीं हो पाते। लोभ-मोह को जीतने से ही श्रुतज्ञान प्राप्त होता है। समस्त पूर्वो के उच्छिन्न होने के कारणों की मीमांसा करते हुए डा. हीरालाल जैन ने लिखा है-“ऐसा प्रतीत होता है कि अन्त के जिन पूर्वो में कलाओं, विद्याओं, यन्त्र-तन्त्रों व इन्द्रजालों का निरूपण था, वे सर्वप्रथम ही मुनियों के संयम रक्षा की दृष्टि से निषिद्ध हो गये । शेष पूर्वो के विच्छिन्न हो जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि उनका जितना विषय जैन मुनियों के लिये उपयुक्त व आवश्यक था, उतना द्वादशांग के अन्य भागों में समाविष्ट कर लिया गया था, इसीलिये इन रचनाओं के पठन-पाठन में समय-शक्ति को लगाना उचित नहीं समझा गया गया।" आगम-साहित्य में आयुर्वेद विषयक सामग्री
दिगम्बर परम्परा में आगमों को नष्ट हुआ माना जाता है, परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में महावीर-निर्वाण के बाद १०वीं शताब्दी में हुई अन्तिम वालभी वाचना में पुस्तक रूप में लिखे गये ४५ ग्रन्थों को समय-समय पर भाषा व विषय सम्बन्धी संशोधन-परिवर्तन के होते रहने पर अब तक उपलब्ध माना जाता है ।
आगम-साहित्य में प्रसंगवशात् आयुर्वेद-सम्बन्धी अनेक सन्दर्भ आये हैं। यहाँ उनका दिग्दर्शन मात्र कराया जायेगा।
'स्थानांग सूत्र' में आयुर्वेद या चिकित्सा (तेगिच्छ-चैकित्स्य) को नौ पापश्रुतों में गिना गया है। निशीथचूणि' से ज्ञात होता है कि धन्वन्तरि इस शास्त्र के मूल-प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने निरन्तर ज्ञान से रोगों की खोज कर वैद्यकशास्त्र या आयुर्वेद की रचना की। जिन लोगों ने इस शास्त्र का अध्ययन किया वे 'महावैद्य' कहलाये।
आयुर्वेद के आठ अंगों का भी उल्लेख इन आगम ग्रन्थों में मिलता है-कौमारभृत्य, शालाक्य, शाल्यहत्य, कायचिकित्सा, जांगुल (विषनाशन), भूतविद्या, रसायन और वाजीकरण । चिकित्सा के मुख्य चार पाद हैं-वैद्य, रोगी, औषधि और प्रतिचर्या (परिचर्या) करने वाला परिचारक । सामान्यत: विद्या और मन्त्रों, कल्पचिकित्सा और
१. डॉ० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ५३. २. स्थानांगसूत्र, ६. ६७८. ३. निशीथचूणि, पृ० ५१२. ४. (क) स्थानांगसूत्र, ८, पृ० ४०४ (ख) विपाक सूत्र, ७, पृ० ४१. ५. उत्तराध्ययन, २०. २३; सुखबोध, पत्र २६६.
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