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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
को प्रणाम कर राजा को प्रणाम नहीं करता। अर्हत् और सिद्ध-दोनों तुल्य-बल हैं, इसलिए उनमें पौर्वापर्य का विचार किया जा सकता है, किन्तु परमनायक अर्हत् और परिषद्-कल्प आचार्य में पौर्वापर्य का विचार नहीं किया जा सकता।
नमस्कार महामन्त्र का महत्त्व
प्रस्तुत महामन्त्र समग्र जैन शासन में समानरूप से प्रतिष्ठा-प्राप्त है। यही इसकी प्राचीनता का हेतु है। यदि यह श्वेताम्बर और दिगम्बर का अन्तर होने के बाद निर्मित होता तो संभव है कि समग्र जैन शासन में इसे इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। किसी एक सम्प्रदाय में इसका महत्त्व होता, दूसरे में इतना महत्त्व नहीं होता। यह मन्त्राधिराज के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होता। लगभग डेढ़ हजार वर्ष की अवधि में इस महामन्त्र पर विपुल साहित्य रचा गया । इसके सहारे अनेक यन्त्रों का विकास हुआ और इसकी स्तुति में अनेक काव्य रचे गये । यह जैनत्व का प्रतीक बना हुआ है। जो जैन होता है वह कम से कम महामन्त्र का अवश्य पाठ करता है। वह कैसा जैन जो महामन्त्र को नहीं जानता ? जो नमस्कार महामन्त्र को धारण करता है, वह श्रावक है। उसे परमबन्धु मानना चाहिए। इस उक्ति से हम नमस्कार महामन्त्र की व्यापकता का मूल्यांकन कर सकते हैं।
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