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________________ जैनधर्म : सर्वप्राचीन धर्म-परम्परा - डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन [ज्योति निकुंज, चारबाग लखनऊ-२२६००१ (उ० प्र०)] धर्मतत्त्व वस्तु स्वभाव का द्योतक है । वस्तु वास्तविक है, अनादि-निधन और शाश्वत है, अतएव उसका स्वभावरूप धर्म भी अनादि-निधन और शाश्वत है। जैन परम्परा में 'धर्मतत्त्व' की यही प्रकृत व्याख्या स्वीकृत है। इसी का पल्लवन जैन तत्वज्ञान में हुआ और उक्त स्वभाव की प्राप्ति के साधनोपायों को ही वहाँ व्यवहार धर्म की संज्ञा दी गई है। किन्तु, सामान्य मानव-जगत् में नाना प्रकार के धार्मिक विश्वास रहते आये हैं और वे भिन्न-भिन्न खुंटों से बँधे हैं, जिसने अनगिनत धर्म-परम्पराओं को जन्म दिया। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव आदि परिस्थितिजन्य कारणों से उनमें परस्पर वैभिन्न्य, अलगाव और मतभेद भी हुए और निहित स्वार्थों के कारण संघर्ष एवं वैर-विरोध हुए, भयंकर युद्ध एवं नर-संहार भी हुए। ये प्रक्रियाएँ चलती आई हैं, आज भी क्रियाशील हैं और शायद सदैव चलती रहेंगी। परिणामस्वरूप 'धर्म' के नाम पर जो विभिन्न परम्पराएँ दर्शन, मत, पन्थ, सम्प्रदाय आदि प्रचलित हैं. उनकी पूर्णता, श्रेष्ठता, प्राचीनता, संभावनाओं आदि की दृष्टि से तुलना भी की ही जाती है। इस प्रसंग में ध्यान देने की बात यह है कि किसी भी धार्मिक परम्परा की श्रेष्ठता उसकी प्राचीनता या अर्वाचीनता पर निर्भर नहीं होती। अनेक नवीन वस्तुएँ भी उत्कृष्ट एवं उपादेय होती हैं और अनेक प्राचीन वस्तुएँ भी निकृष्ट एवं निरर्थक सिद्ध होती हैं। तथापि यदि कोई धर्म अति प्राचीन होने के साथ ही साथ अपने उदयकाल से लेकर वर्तमान पर्यन्त जीवित, सक्रिय एवं प्रगतिशील बना रहा है, लोकोन्नयन में उत्प्रेरक, नैतिक उत्कर्ष एवं सांस्कृतिक अभिवृद्धि में सहायक रहा है और उनकी सम्भावनाएँ एवं क्षमताएँ भी अभी चूक नहीं गई हैं, तो उनकी आपेक्षिक प्राचीनता उसके स्थायी महत्त्व तभा उसमें अन्तनिहित सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक तत्त्वों की ही सूचक हैं। दूसरे, किसी संस्कृति के विकास का समुचित ज्ञान तथा उसकी देनों का सम्यक मूल्यांकन करने के लिए भी उक्त संस्कृति की जननी या आधार-भूत धर्म-परम्परा की प्राचीनता को खोजना आवश्यक हो जाता है। __ यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जैन परम्परा की प्राचीनता में शंका उठाने की और उसे सिद्ध करने की आवश्यकता ही क्यों हई ? जैनों की परम्परा अन श्रुति तो, जबसे भी वह मिलनी प्रारम्भ होती है, सहज निर्विवाद रूप में उसे सर्वप्राचीन मानती ही चली आती है। इसके अतिरिक्त, अन्य प्राचीन भारतीय परम्पराओं में बौद्ध ही नहीं, स्वयं ब्राह्मणीय (हिन्दू) अनुश्रुति भी अत्यन्त प्राचीन काल से ही जैनधर्म की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करती चली आती है। इस विषय में भारतवर्ष के प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों में से किसी ने भी कोई शंका नहीं उठाई। तब फिर एक स्वतःसिद्ध एवं सर्वसम्मत मान्यता को नए सिरे से सिद्ध करने की क्या आवश्यकता हुई ? इसका कारण है। आधुनिक युग के प्रारम्भ में यूरोपीय प्राच्य-विदों ने जब भारतीय विद्या का अध्ययन भारम्भ किया तो उन्होंने भारतवर्ष के धर्म या धमों, संस्कृति, साहित्य और कला के इतिहास का नए सिरे से निर्माण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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