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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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करना आरम्भ किया। सृष्टिकर्ता-ईश्वरवादी सेमेटिक (ईसाई) विश्वास उनके संस्कारों में बसे थे, और आधुनिक युगीन वैज्ञानिकता एवं विकासवाद से उनकी बुद्धि पूरी तरह प्रभावित थी। परिणामस्वरूप वे इस धारणा को लेकर चले कि प्रत्येक परम्परा का कोई जनक, जन्मस्थान और जन्मकाल है और तभी से उसका इतिहास आरम्भ होता है। किन्तु वे इस तथ्य से अपरिचित रहे प्रतीत होते हैं कि विश्व व्यवस्था में सभी चीजें सादि-सान्त नहीं होती, वरन् अनेक ऐसी हैं जो अनादि-निधन होती हैं। अतएव उनकी धारणा थी कि प्रत्येक धर्म व्यक्तिविशेष द्वारा, क्षेत्रविशेष और कालविशेष में स्थापित हुआ होना चाहिए और उनकी इस धारणा का समर्थन बौद्ध, पारसी, यहूदी, ईसाई, मुसलमान आदि धर्मों के इतिहास से होता ही था, किन्तु वे सब ऐतिहासिक धर्म हैं, अत: उनके जनक, जन्म-स्थान और जन्म-तिथि होना स्वाभाविक हैं । इनके विपरीत, कुछ धर्म या संस्कृतियाँ ऐतिहासिक नहीं वरन् परम्परामूलक होती हैं और उनके संस्थापक या स्थापनाकाल का निर्णय नहीं किया जा सकता । सुदूर अतीत में जहाँ तक ज्ञात इतिहास की पहुँच होती है, उनका अस्तित्व पाया जाता है। उनके पथ में विकास और अवरोध, उत्थान और पतन भी आते रहते हैं, तथापि बे बनी रहती हैं, क्योंकि उनका मूलाधार मानव-स्वभाव होता है। अस्तु, प्रवृत्तिप्रधान वैदिक परम्परा से प्रसूत ब्राह्मण धर्म अथवा शैव-वैष्णवादि रूप तथाकथित हिन्दूधर्म जिस प्रकार परम्परामूलक और सनातन है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थंकरों द्वारा पोषित-संरक्षित निवृत्तिप्रधान आत्मधर्म अर्थात् जैनधर्म भी परम्परामूलक एवं सनातन है । वस्तुत: अपनी सहज संज्ञाओं एवं एषणाओं से प्रेरित संसारी प्राणी प्रवृत्ति में तो स्वतः लीन रहता है, किन्तु जब वह प्रवृत्ति अमर्यादित, उच्छृखल, परपीड़क और अशान्तिकर हो जाती है तो उसे सीमित, मर्यादित एवं संयमित करने के लिए निवृत्ति मार्ग का उपदेश दिया जाता है, और यहीं से पारमार्थिक धर्म का प्रारम्भ होता है। अतएव जब से मानव या मानवीय सभ्यता का अस्तित्व है तभी से दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं इन्द्रिय-विषयों के पोषण के हित कर्मप्रधान प्रवृत्ति मार्ग भी है और उसके परिष्कार-परिमार्जन के लिए आत्मस्वभाव-रूप-धर्मप्रधान निवृत्ति मार्ग भी है-जैन धर्म उसी निवृत्तिमूलक अहिंसाधारित सदाचार-प्रधान आत्मधर्म का सदैव से प्रतिनिधित्व करता आया है।
उन आधुनिक युगीन प्रारम्भिक पाश्चात्य प्राच्यविदों की पकड़ में यह तथ्य नहीं आया, और जब उनका ध्यान जैन परम्परा की ओर आकर्षित हुआ तो उन्होंने उसे भी एक ऐतिहासिक धर्म मानकर उसके इतिहास की खोज प्रारम्भ कर दी। वे यहूदी और ईसाई धर्मों से तो पूर्ण परिचित थे ही, मुसलमान, बौद्ध और हिन्दू धर्म से भी पहले ही भलीभांति परिचित हो चुके थे। अतएव हिन्दू, विशेषकर बौद्ध के परिप्रेक्ष्य में ही उन्होंने जैन-धर्म को देखा। उनकी पद्धति वर्तमान को स्थिर बिन्दु मानकर प्रत्येक वस्तु के इतिहास को पीछे की ओर उसके उद्गम स्थान या उदयकाल तक खोजते चले जाने की थी। जो तथ्य प्रमाणसिद्ध होते जाते और अतीत में जितनी दूर तक ले जाते प्रतीत होते वहीं वे विद्वान् उसका जन्म निश्चित कर देते। नए प्रमाण प्राप्त होने पर यदि उक्त अवधि और अधिक पीछे हटाई जा सकती तो वैसा करते चले जाते । स्वयं भारतीय जन किसी भी बात को कितना ही निश्चित, असन्दिग्ध और स्वयंसिद्ध मानते हों, ये विद्वान् बिना परीक्षा और प्रयोग के उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते थे। अत: ऐसे सर्वविदित तथ्य यथा शक, विक्रम आदि संवतों का प्रवर्तनकाल, महावीर और बुद्ध की निर्वाण तिथियाँ, रामायण या महाभारत में वणित व्यक्तियों एवं घटनाओं की ऐतिहासिकता इत्यादि भी विवाद के विषय बने। अनेक पुरातन आचार्यों, ग्रन्थों, स्मारकों, पुरातात्त्विक वस्तुओं आदि के विषय में मत-वैभिन्न्य हुए। आज भी हैं और अनेक प्राचीन नरेशों एवं अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के विषय में विवाद चलते ही रहते हैं कि उनका सम्बन्ध हिन्दू-धर्म से, जैनधर्म से अथवा बौद्धधर्म से है। अस्तु, जैनधर्म का स्वतन्त्र अस्तित्व एवं उसकी आपेक्षिक प्राचीनता और इतिहास भी विवाद के विषय बने।
१६वीं शताब्दी के प्रारम्भिक प्राच्यविदों द्वारा पुरस्कृत उपर्युक्त खोज पद्धति ही आज के युग की वैज्ञानिक पद्धति मान्य की जाती है । उसी का अनुसरण स्वदेशीय भारतीय-विद्याविद् एव इतिहासकार भी करते चले आ रहे हैं । बहुत अंशों में वह है भी एक युक्तिसंगत, प्रामाणिक, श्रेष्ठ पद्धति । इस परीक्षा-प्रधान बौद्धिक युग में प्रत्येक तथ्य को परीक्षा द्वारा प्रमाणित करके ही मान्य किया जाता है । जैनधर्म स्वयं एक परीक्षा-प्रधान धर्म होने का गर्व करता है, और इस परीक्षा पद्धति के द्वारा
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