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८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
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था। इसके लिए कोई प्रमाण नहीं है। यह अनुमान आनन्दसुन्दर (११५ ) के आधार पर अन्यायपूर्वक किया गया प्रतीत होता है, जिसके मंगलाचरण में उक्त तीर्थकरों की वन्दना तथा उनके आशीर्वाद की आकांक्षा की गयी है । मण्डप श्रृंगाराः पञ्चाप्येते जिनेश्वराः । शास्त्रादौ जावडेन्द्रस्य प्रसन्नाः सन्तु सन्ततम् ।। ६ ।। कवि ने इन पाँच जिनों को ही क्यों चुना है, यह तो उसे ही ज्ञात है महावीर को इनमें शामिल करना सम्भवतः इसलिए उचित समझा गया है कि काव्य के सभी नायक उनके उपासक थे । किन्तु इस पद्य से यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाला जा सकता कि उक्त तीर्थकरों के मन्दिर माण्डवगढ़ के प्रमुख देवायतन थे । चैत्यप्रवाड़ी में क्षेमराजगणि ने माण्डू तथा उसके आस-पास के प्रतिनिधि तीर्थस्थलों की यात्रा का विवरण देते हुए निकटवर्ती तारापुर, धार, होशंगाबाद, ( ये सब सम्भवतः माण्डू के सुल्तान के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत थे, इसीलिए प्रवाड़ी में इन्हें शामिल किया गया है) आदि स्थानों के अतिरिक्त खास मा के पार्श्व सुपार्श्व शान्ति सम्भव तथ आदिनाथ के पाँच मन्दिरों का नामोल्लेख तथा वर्णन किया है। उसके साक्ष्य से यह सहज माना जा सकता है कि उसके द्वारा निर्दिष्ट पाँच मन्दिर उस समय खास माण्डू के मुख्य देवायतन थे ।
माण्डू के पार्श्व तथा सुपार्श्व मन्दिरों की प्रतिनिधि प्रकृति की पुष्टि समवर्ती कल्पसूत्रप्रशस्ति से होती है। श्रीमन्मण्डपमेरुभूधरधरास्कन्धे निबद्धस्थिती । श्रीमत्पार्श्वमुपार्जित स्थातां सतां पसे ।। १ ।।
इसके अतिरिक्त प्रत्येक जैन जानता है कि विशेषकर सुपा देव माण्डू के अधिष्ठाता देव माने जाने रहे हैं। यह गुजराती कवि ऋषभदास के बहुश:- उद्धृत पद्य से स्पष्ट है---
माहवगटनो राजियो नामे
देव सुपास । 'ऋषभ' कहे जिन समरतां पहोंचे मननी आस || ५ ||
माण्डू के जैनों के देवता के रूप में सुपार्श्व का उल्लेख रत्नमन्दिरमणि का उपदेश तरंगिणी' ( पृ० ११५), खेमाकृत वृद्धचैत्यवन्दन, शीलविजय तथा सुभागविजय की तीर्थमालाओं में भी हुआ है। ये सभी ( अंतकीट) अठारहवीं शताब्दी की कृतियां हैं।
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साहित्य तथा शिलालेखों में कहीं भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जावड़ ने उक्त पाँच मन्दिरों अथवा उनमें से किसी एक का या अन्य किसी जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था। दूसरी ओर, यह निश्चित है कि जावड़ के समय में, माण्डू में जैन मन्दिर पर्याप्त संख्या में विद्यमान थे, यद्यपि यह कहना कठिन है कि उन समस्त सात सौ मन्दिरों का क्या हुआ, जिनका उल्लेख मुनि जयानन्द ने अपनी 'नेमा प्रवास-गीतिका में किया है तथा ओ संवत् १४२७ में, उनकी यात्रा के समय वहाँ अवस्थित थे, जब माण्डू की जनसंख्या ३००,००० थी । अस्तु, यदि हम माण्डू के जैन मन्दिरों के प्राचीन इतिहास की खोज करने लगे तो हम विषय से भटक जायेंगे क्योंकि उसके अन्तर्गत हमें पेड़ के प्रसिद्ध निर्माणकार्य पर दृष्टिपात करना होगा। यहां यह कहना ही पर्याप्त होगा कि जानड़ के समय में कम-से
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१. मुनि यतीन्द्र विजय यतीन्द्रविहारदिग्दर्शन, भाग ४, सं० १९९३ पृ० २०३, अगरचन्द नाहटा ने इसे दोहराया है, मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् की पत्रिका, नं० २, पृ० ८०.
२. चैत्यप्रवाड़ी के पाठ से बिल्कुल स्पष्ट है कि तीर्थयात्रा के मार्ग के २२ मन्दिरों में से केवल पांच माण्डू में स्थित थे, यद्यपि अगरचन्द नाहटा इन सब को माण्डू में स्थित मानते हैं। देखिये - मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् की पत्रिका, पूर्वोक्त ।
३. बनारस से प्रकाशित, सं० १५२०, वीर संवत् २४३७
४. सं० १६१६ ( ? ) द्रष्टव्य-क्राउझे, त्रण प्राचीन गुजराती कृतिओ, अमदाबाद, १६५१, पृ० २५-२६
५. सं० १७४६ तथा १७५० : देखिए ६. मुनिम्याविजयकृत जैन तीर्थोनो इतिहास, अमदावाद, १९४९, पृ० ४११
विजयधर्मसूरि, प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, संवत् १६७८, पृ० १०१ तथा ७३
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