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तेरापंथ सम्प्रदाय और नयी कविता
0प्रो० बी० एल० आच्छा हिन्दी विभाग, शासकीय महाविद्यालय, बड़नगर (म. प्र.)
साहित्य जब साम्प्रदायिक मूल्यों के पोषण के लिए रचा जाता है, तो साहित्य की सरहद से हटकर सोद्देश्य रचना का शब्दजाल बनकर रह जाता है। परन्तु सम्प्रदाय की हदबन्दियों से हटकर सार्थक जीवनानुभूतियों को, बेहतर इंसानी रिश्तों को, संकल्पवती आस्था को, मानवीय जिजीविषा को, विसंगतियों में पलती सामाजिक व्यवस्था को अथवा मानवीय आकांक्षाओं से संवेदित मूल्यों को पाथेय बनाता है, तो वह सम्प्रदाय का नहीं जीवित मानवता की सार्थक अभिव्यक्ति बन जाता है। भारत में अनेक सम्प्रदायों और धार्मिक आन्दोलनों का उत्थान-पतन हुआ है, भक्ति, वेदान्त दर्शन, साधना आदि पर सम्प्रदाय लक्षित प्रभूत साहित्य रचा गया है, परन्तु उसका अधिकांश काव्य के क्षेत्र में प्रविष्ट नहीं हो पाया। अपभ्रंश और प्राकृत के अनेक जैन कथाकाव्य रूढ़ियों के प्रयोग में मंतव्यानुसारी बन गये हैं, जिनमें नायक-नायिका दीक्षागुरु से उपदेश प्राप्त कर, जैन साधु बन जाते हैं तथा कर्मों से विरत होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। परन्तु जहाँ कहीं इस सोद्दे श्यता से हटकर उदाशयता प्रकट हुई हैकाव्य क्रान्तिकारी सिद्ध हुए हैं। कबीर हठयोगी निर्गुण सन्त होते हुए भी मानवता के पोषक हैं और तुलसी के राम सम्प्रदाय-विशेष के आराध्य होकर भी मानवता के त्राता पुरुष हैं। सौभाग्य से जैन धर्म का नव्यतम सम्प्रदायतेरापंथ भी पिछली मान्यताओं से हटकर, मानवता की-उनके सभी पाश्वों की भावभूमि पर काव्य संपदा का सजन कर रहा है। यह सम्पदा तेरापंथ की धरोहर नहीं, साहित्य की तरह निखिल मानवता की रग को छू लेने वाली सहानुभूतिशील धरोहर है ।
महावीर ने सत्य को अनेकान्तिक कहा है और चरमसत्य को समझने के लिए स्याद्वाद की राह दिखायी है। आज धर्म को भी उसके अनेकान्त में देखने की आवश्यकता है । धर्म कोश, तत्त्व दर्शन, समाधियोग अथवा निवृत्ति मात्र नहीं है। धर्म का सीधा सम्बन्ध सामाजिक स्वास्थ्य और समता से है। इन्हें अनदेखा कर धर्म की चिन्ता करना बेमानी लगता है। आचार्य द्विवेदी का कहना है कि अगर निरन्तर व्यवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता रहेगा तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी।' अतः धर्म का सीधा सरोकार मानवीय व्यवस्थाओं से है। कहना न होगा कि आज धर्म-सिद्धान्त और व्यवहार के द्वत, मुखौटों की नक्कालता पर प्रहार कर समाज सम्पृक्त नयी मर्यादाओं का संश्लेषण करना चाहता है । तेरापन्थ के ये जैनकवि अपने सम्पूर्ण काव्य प्रयासों में जीवन के अनेकान्त से जुड़े हैं, सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने नजदीकी से देखा है, ईश्वरीयता पर नये प्रश्न-चिह्न लगाये हैं, आस्था और विश्वास के नये संकल्प दिये हैं और नकली कुण्ठाओं को अनावृत कर स्वस्थ मानवीयता के सबल संकेत दिये हैं। यही कारण है कि ये कविताएँ हिन्दी की नयी कविता से अन्तरंग होती हुई भी नैराश्य और अनास्था के बियावान में नहीं भटकी है।
समय की प्रगति, बदलती विचारधाराएँ, एवं संगत-विसंगत परिदृश्य कवि की अनुभूति को प्रभावित करते हैं। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् वैज्ञानिक और तकनीकी विकास, युद्धों की काली छाया, यान्त्रिक जीवन की नीरसता,
१. पुनर्नवा-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ० १७३.
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