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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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जीवन-मूल्यों की टकराहट, सिद्धान्त और आचरण का द्वैत, परम्परा और परम्परा-विहीनता का संघर्ष, व्यक्ति और समाज के उलझते रिश्ते आदि अनेक जटिलताओं ने जीवन को प्रभावित किया है और काव्य संसार भी इससे अछूता नहीं रहा । हमारे सारे विचार मानव केन्द्रित हो गये और गतानुगतिक विचार संक्रमित होते रहे । संक्रमण के इस दौर में भी कुछ कवि प्राणवन्त बनकर मानवता के भविष्य के प्रति विश्वासी बने रहे, परन्तु उसका निराश किन्तु विध्वंसक स्वर निहिलिज्म में सुना गया। कहना न होगा कि मानवीय चरित्र के ये सर्जक साधक कवि धार्मिक मान्यताओं से उपरत होकर मानवीय भविष्य के प्रति संवेदनशील बने रहे । धर्म का तात्त्विक और निवृत्तिमूलक रूप ही अब तक चिन्तनीय बना रहा, परन्तु इन कवियों ने इस एका न्तिक दर्शन को भी चुनौती देने का साहस किया है। फ्रांसीसी कवि रेम्बू का कहना है कि “काव्यात्मक मार्ग तक आने का अभिनव मार्ग ऊँचा और खतरनाक है" और इन कवियों के लिए यह खतरा दुहरा बन गया है-धर्म को तथा काव्य को चुनौती देने के सन्दर्भ में । पर यह आस्थाभरी चुनौती हमेशा गति देती है। सर्वेश्वर के शब्दों में--
__ "वह यति है—हर गति को नया जन्म देती है।
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है।" प्रस्तुत लेख तेरापंथ के इन जैन कवियों की काव्य-साधना का प्रवृत्तिगत बिश्लेषण करने के लिए लिखा गया है, जो इस प्रकार है
(१) आस्था और विश्वास का स्वर-मानव की ऐतिहासिक सामाजिक यात्रा में कई अँधेरे युग आये हैं, पर मानव की दुर्दम जिजीविषा ने कभी दम नहीं तोड़ा है। जीवन के विकृत पापों, विघटन और विखराव के परिदृश्यों, युद्ध और विनाश की अमंगल छाया से त्रस्त जीवन मूल्यों और पाशविकता के दंभ भरे कदाचरणों में भी जीने का मूलमन्त्र प्रत्येक युग ने स्वीकार किया है। लेकिन आज जिन्दगी के रेशे में अनास्था और निरर्थकता का व्यापन हो गया है। तेरापंथ के ये कवि जीवन को उसके सारे यथार्थ सन्दर्भो में स्वीकार करके भी हताश का चिन्तन नहीं देते
उसके स्वीकार में तनिक भी हमें संकोच नहीं हैकि हमारे में ज्वालामुखी सी भभकती हुई एक आग है,
नुची हुई लाश की भयंकरता है मांस नोचते हुए गिद्धों सी, क्रूरता है और गहरे से गहरे चुभ जाने वाला नुकीले कांच के
टुकड़े सा हमारे में अहम् है।' ___ इन सन्दर्भो से कटकर कवि जीना नहीं चाहता, हताश से क्षणवाद की राह नहीं पकड़ता, अनस्तित्व की पीड़ा से मर्माहत नहीं होता। यहाँ तक कि ईश्वरीय विश्वासों को तिलांजलि देकर वह अपने अस्तित्व को कायम रखना चाहता है, यह अस्तित्व पौरुष का अस्तित्व है। मुनि रूपचन्द्र की कविता को लक्ष्य करते हुए डॉ० वार्ष्णेय का कहना है कि संगत-असंगत परिस्थतियों के बीच से कवि प्रशान्त मार्ग खोजने निकलता है और क्षोभ, आक्रोश, आदि से भरे स्वरों को अभिव्यक्ति प्रदान कर आज के भारतीय जन में कर्मठता और आत्मबल उत्पन्न करने की आकांक्षा प्रकट करता है । अकर्मण्यता पर वह गहरा व्यंग्य करता है । मुनि रूपचन्द्र का कहना है
१. अर्धविराम-मुनि रूपचन्द्र, पृ० ३०. २. द्वितीय महायुद्धोत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पृ० २३५
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