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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
कथन से भी होती है कि एक बार तत्कालीन गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंह ने आचार्य हेमचन्द्र से पूछा कि-- आपके पट्ट के योग्य गुणवान शिष्य कौन हैं ?' इसके उत्तर में हेमचन्द्र ने रामचन्द्र का नाम लिया था।
रामचन्द्र अपनी असाधारण प्रतिभा एवं कवि-कर्म-कुशलता के कारण कविकटारमल्ल की सम्मानित उपाधि से अलंकृत थे । वह उपाधि उन्हें सिद्धराज जयसिंह ने प्रसन्न होकर प्रदान की थी। इसका उल्लेख रत्नमन्दिरगणि गुम्फित उपदेशतरंगिणी में इस प्रकार मिलता है कि-एक बार जयसिंहदेव ग्रीष्म ऋतु में क्रीडोद्यान जा रहे थे, उसी समय मार्ग में रामचन्द्र मिल गये । उन्होंने रामचन्द्र से पूछा कि-ग्रीष्म ऋतु में दिन बड़े क्यों होते हैं ? इसके उत्तर में उन्होंने (तत्काल पद्य रचना करके) निम्न पद्य कहा--
देव श्रीगिरिदुर्गमल्ल भवती दिग्जैत्रयात्रोत्सवे
धीवद्धीरतुरंगनिष्ठुरखुरक्षुण्णक्षमामण्डलात् । वातोद्धृतरजोमिलत्सुरसरित्संजातपंकस्थली
दूर्वाचुम्बनचंचुरा रविहयास्तेनाति वृद्ध दिनम् ।। - यह सुनकर सिद्धराज द्वारा पुन: "तत्काल पत्तननगर का वर्णन करो" यह कहे जाने पर उन्होंने निम्न पद्य की रचना की
एतस्यास्य पुरस्य पौरवनिताचातुर्यता निजिता,
मन्ये नाथ ! सरस्वती जडतया नीरं वहन्ती स्थिता। कोतिस्तम्भमिषोच्चदण्डरुचिरामुत्सूत्र्यवाहावली
तन्त्रीकां गुरुसिद्धभूपतिसरस्तुम्बी निजां कच्छपीम् । तदनन्तर सिद्धराज जयसिंह ने प्रसन्न होकर महाकवि रामचन्द्र को सबके सामने 'कवि कटारमल्ल' की उपाधि प्रदान की थी।
महाकवि रामचन्द्र समस्या-पूर्ति करने में भी बहुत चतुर थे। एक बार वाराणसी से विश्वेश्वर कवि पत्तन नामक नगर में आये तथा कवि आचार्य हेमचन्द्र की सभा में गये । वहाँ राजा कुमारपाल भी विद्यमान थे। विश्वेश्वर ने कुमारपाल को आशीर्वाद देते हुए कहा-'पातु वो हेमगोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन्' यत: राजा जैन थे, अत: उन्हें कृष्ण द्वारा अपनी रक्षा की बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने क्रोध भरी दृष्टि से देखा । तभी रामचन्द्र ने उक्त श्लोकार्ध की पूर्ति के रूप में 'षड्दर्शन-पशुग्राम चारयन् जैन-गोचरे" यह कहकर राजा को प्रसन्न कर दिया।
१. राजा श्रीसिद्धराजेनान्यदा नुयुयुजे प्रभुः ।
भवतां कोऽस्ति पट्टस्य योग्यः शिष्यो गुणाधिकः ।।
-प्रभावकचरित (प्रभाचन्द्राचार्य), सम्पादक-जिनविजय मुनि, प्रका० सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १९४० हेमचन्द्रसूरिप्रबंध, पद्य १२६. २. आह श्रीहेमचन्द्रस्य न कोऽप्येवं हि चिन्तकः ।
आद्योऽप्यभूदिग्पाल: सत्पात्राम्भोधिचन्द्रमाः ॥ सज्ज्ञानमहिमस्थैर्य मुनीनां किं न जायते । कल्पद्रुमसमे राज्ञि त्वयीदृशि कृतास्थितौ ।। अस्त्यामुष्यायणो रामचन्द्राख्य: कृतिशेखरः । प्राप्तरेखः प्राप्तरूपः संघे विश्वकलानिधिः ॥
-वही, पद्य १३१-१३३. ३. द्रष्टव्य-उपदेशतरंगिणी (रत्नमन्दिरगणि), प्रका० हर्षचन्द्र मूराभाई, वाराणसी, वी०नि०सं० २४३७, पृ० ८६. ४. प्रबंधचिन्तामणि (मेरुतुगाचार्य), सम्पादक-जिनविजय मुनि, प्रका० सिंघी जैन ज्ञानपीठ, १९३५,
कुमारपालादिप्रबंध, पृ० ८६.
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