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बसाये' । सरीपत के वंशज सम्राट अकबर द्वारा किये गये चित्तौड़ पर आक्रमण के समय चित्तौड़ के अन्तिम ( तीसरे ) साके में लड़े और काम आये केवल मेवराज जो राणा उदयसिंहजी के बड़े विश्वासपात्र में ये इस लड़ाई के पूर्व ही महाराणा उदयसिंह के साथ चित्तौड़ से निकल गये और बच गये । वर्तमान का सारा कुटुम्ब मेघराज का वंश है । मेहता मेघराज ने उदयपुर में मेहतों का टिम्बा बसाया एवं सबसे पहला श्री शीतलनाथजी का विशाल जैन मन्दिर बनवाया । उदयपुर नगर के महलों का सबसे पुराना भाग राय आंगन, नेका की चौपड़, पाण्डे की ओवरी, जनाना रावला ( कोठार), मौचोकी सहित पानेडा, महाराणा उदयसिंहजी ने बनवाये पुरानी परम्परा थी कि गढ़ की नींव के साथ मन्दिर की नींव दी जाती थी। तदनुसार राजमहल के इस निर्माण कार्य के साथ श्री शीतलनाथजी के उक्त मन्दिर का शिलान्यास एक ही दिन वि०सं० १६२४ में सम्पन्न हुआ। बताते हैं, इस मन्दिर के मूलनायक की प्रतिमा भी चित्तोड़ से लाई गई थी। इसी मन्दिर के साथ एक विशाल उपाश्रय भी है जो तपागच्छ का मूल स्थान है जहाँ के पट्ट आचार्य श्रीपूज्यजी कहलाते थे जिनके संचालन में भारत के समस्त तपागच्छ की प्रवृत्तियां चलती थीं। संवेगी साधु समाज का प्रादूप होने के पश्चात् भी तपागच्छ के संवेगी मुनिवर्ग को उदयपुर नगर में व्याख्यान हेतु अनुमति लेनी पड़ती थी । इतना ही नहीं, यहां के श्रीपूज्यों को राज्य-मान्यता थी । जब कभी श्रीपूज्यजी का उदयपुर नगर में प्रवेश होता तो यहाँ के महाराणा अपने महलों से करीब दो मील आगे तेलियों की सराय, वर्तमान भूपाल नोबल्स कॉलेज तक अगवाई के लिए जाते थे। प्रतिक्रमण में शान्ति की प्रविष्टि भी इसी स्थान से हुई मेहता मेघराज के पुत्र वेरीसाल से दो शाखायें चलीं- ज्येष्ठ पुत्र अन्नाजी की सन्तति टिम्बे वाले एवं लघु पुत्र सोनाजी की सन्तति ड्योढी वाले मेहता के नाम से प्रसिद्ध हुई जो सदियों से जनानी योडी का कार्य करते रहे हैं। मेहता मेघराज की ११वीं पीढ़ी में मेहता मालदास हुए जिन्होंने वि० सं० १८४४ में मेवाड़ एवं कोटा की संयुक्त सेना के सेनापति होकर मरहठों से निकुम्भ, जिरण, निम्बाहेड़ा लेकर इन पर अधिकार किया और हवाखाल के पास युद्ध का नेतृत्व किया। इन्हीं के नाम से मालदासजी की सेहरी, उदयपुर नगर का समृद्ध मोहल्ला है।*
मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म
राणाओं के पुरोहित ऐसा कहते हैं कि राणा राहप को कुष्ठ रोग हो गया जिसका इलाज सांडेराव (गोड़वाद) के पति ने किया । जब से इन यति एवं इनके शिष्य परम्परा का सम्मान मेवाड़ के राणाओं में होता रहा। उक्त यति के कहने से उनके एक शिष्य सरवल, जो पल्लीवाल जाति के ब्राह्मण का पुत्र था, को राहप ने अपना पुरोहित बनाया, तब से मेवाड़ के राणाओं के पुरोहित पल्लीवाल ब्राह्मण चले आते हैं। इसके पूर्व चौबीसे ब्राह्मण थे। डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा के राजाओं के पुरोहित अब तक चौबीसे ब्राह्मण हैं । "
१. ओसवाल जाति का इतिहास, सुखसम्पतराज भण्डारी, पृ० ३१६. २. मेवाड़ के जैन वीरें, जोधसिंह मेहता ।
महाराणा तेजसिंह एवं समरसिंह
जत्रसिंह के पीछे उसका पुत्र तेजसिंह मेवाड़ का स्वामी हुआ जिसके विरुद महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर आदि मिलते हैं। जैसाकि उपरोक्त लेख से प्रतीत होगा कि तपागच्छ का प्रादुर्भाव वंशोत्पत्ति, जैन मन्दिर निर्माण आदि कारणों से मेवाड़ के राज्य वंश का जैनधर्म से बड़ा अच्छा एवं उसके पुत्र समरसिंह के शासनकाल में और भी ज्यादा गहरा हुआ
३. राजपूताना का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ७३३. ४. लेखक के पिता श्री अर्जुनलाल मेहता द्वारा संकलित वंशावली ।
५. मेवाड़ के जैन वीर, श्री जोधसिंह मेहता |
६. राजपूताना का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ५१०.
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सम्बन्ध हो गया था, यह सम्बन्ध तेजसिंह तेजसिंह के समय जैनधर्म की अभूतपूर्व उन्नति
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