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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
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तो वे नाथद्वारा पधारे। अपने भक्त को दर्शन देने के लिए जेल में आये। उनकी कोठरी के सामने स्वामीजी पहुँचे तब वे गुनगुना रहे थे -
(१) मोटो फंद पड्यो इण जीव रे कनक कामणी दोय ।
(२) उलझ रह्यो निकल सकूं नहीं रे, दर्शण दो पड्यो विछोह । (३) स्वामी जी रा दर्शन कि विश्व होये
स्वामीजी कुछ क्षण उनकी तल्लीनता देखते रहे फिर वे बोले-शोभजी दर्शन कर लो। स्वामीजी को प्रत्यक्ष आँखों के सामने देखकर हर्ष विभोर हो गये । वे वन्दन करने के लिए खड़े हुए और बाँधी हुई पैरों की बेड़ियाँ तिनके ज्यों टूट गई । जेल संरक्षक को यह घटना देखकर आश्चर्य हुआ । उन्होंने शोभजी जैसे महान् व्यक्ति को अन्दर कैद रखना उचित नहीं समझा । शोभजी को मुक्त कर दिया गया । इन्होंने अनेक व्यक्तियों को स्वामीजी का अनुयायी बनाया। शोभजी भक्त के साथ-साथ अच्छे कवि भी थे। उन्होंने संकल्प किया था कि स्वामीजी जितने पद्य बनायेंगे, उनका दशमांश वे बनायेंगे। इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में ३८०० पद्यों की रचना की । उनके कई गीत आज भी भाई-बहिनों के मुँह पर सुने जाते हैं।
(२) श्री केशरजी भण्डारी - श्रावक श्री केशरजी का जन्म कपासन में हुआ है। कुछ समय पश्चात् इन्होंने अपना निवास स्थान उदयपुर बना लिया । श्रावक श्री शोभजी के प्रयत्न से ये स्वामीजी के अनुयायी बने थे 1 काफी समय तक वे प्रच्छन्न रूप में रहे थे । उस समय तेरापंथी बनने वालों को काफी सामाजिक कठिनाइयाँ सहनी पड़ती थीं । भारमल स्वामी के उदयपुर निष्कासन के समय ये प्रकट रूप में आमने आये । कई भ्रान्तियों में पड़कर राजा ने भारमलजी स्वामी को उदयपुर से निकाल दिया और मेवाड़ भर से निकालने की भी योजनाएँ चल रही थीं। उस समय केशरजी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने महाराणा के मन को मोड़ा और उनकी गलती का भान कराया । महाराणा ने दो पत्र लिखकर भारमलजी स्वामी को उदयपुर पधारने की प्रार्थना की। उस समय केशरजी ने संघ और आचार्य की जो सेवा की वह सदा स्मरणीय रहेगी। केशरजी अनेक वर्षों तक महाराणा के यहाँ ड्योढ़ी (अन्तःपुर ) के अधिकारी के रूप में रहे। कई वर्षों तक ये राज्य में कर अधिकारी के रूप में रहे, कालान्तर में महाराणा ने इनको राज्य का न्यायाधीश नियुक्त किया । इनकी ईमानदारी और सेवा भावना से महाराणा बहुत प्रभावित हुए, विश्वासपात्र होने से महाराणा इनकी हर बात को ध्यान से सुनते थे । इनके प्रयास से ही विरोधियों का सारा पाँस पलट दिया गया । राजकीय कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी ये कुछ न कुछ समय प्रतिदिन स्वाध्याय में लगाते थे 1 इनके पास आगमों और शास्त्रों का अच्छा संग्रह भी था ।
(३) श्री अम्बालालजी कावड़िया श्री कावड़िया उदयपुर निवासी थे और सुप्रसिद्ध भामाशाह के वंशज थे । इनका ननिहाल तेरापंथी परिवार में था । इनको धर्म के संस्कार अपनी माँ से मिले। बाद में जयाचार्य के पास उन्होंने सम्यक् श्रद्धा ग्रहण की। वे वकालत भी करते थे । समाज की अनेक उलझनों को ये आसानी से सुलझा देते थे। गंगापुर की साध्वी श्री नजरकंवरजी की दीक्षा रुकवाने के लिए पुर निवासी जीवमलजी ने एक मुकदमा प्रारम्भ किया था, उस मुकदमे को विफल करने में इनका ही परिश्रम रहा था । वे शासन और आचार्य की सेवा तो करते ही ये किन्तु सेवा में आने वाले यात्रियों की सुविधाओं का भी ख्याल रखते थे। इनके विशेष निवेदन पर सं० १९७२ का चातुर्मास डालगणी ने उदयपुर में किया चातुर्मास में सेवा का उन्होंने अच्छा लाभ उठाया। उन्होंने जाचार्य से लेकर कालूगणी के शासन काल तक अपनी सेवाए संघ को दीं । ६६ वर्ष का आयुष्य पूरा कर कालधर्म प्राप्त किया।
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(४) हेमजी बोलावासरदारगढ़ के निवासी थे ये ऋषिशय के शासन काल में हुए वे साधु-साध्वियों की सेवा काफी रुचि से करते थे । तात्त्विक ज्ञान अच्छा सीखा हुआ था । पच्चीस वर्ष की भर यौवन अवस्था में इन्होंने यावज्जीवन सपत्नीक ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया था। योगों की स्थिरता का अच्छा अभ्यास था। एक बार पश्चिम
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