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तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य
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राजस्थानी भाषा और सरदारशहर, चुरू आदि में बोली जाने वाली राजस्थानी में बहुत अन्तर है। जयपुर की भाषा भी भिन्न पड़ती है । इसी प्रकार मारवाड़, मेवाड़, गोड़वाड़, बाड़मेर, पचपदरा, जसोल आदि में व्यवहृत राजस्थानी का भी रूप भिन्न-भिन्न है।
तेरापंथ धर्म-संघ राजस्थान में जन्मा और यहीं पल्लवित और पुष्पित हुआ। इस संघ में प्रवजित होने वाले साधु-साध्वी भी राजस्थान के ही थे और उनका विहार-क्षेत्र भी मुख्यत: राजस्थान ही रहा । अनुयायी वर्ग भी राजस्थानी ही था अतः यह स्वाभाविक ही था कि साहित्य-सृजन भी मुख्यतः राजस्थानी भाषा में ही हो।
तेरापंथ धर्म-संध में आठ आचार्य हो चुके हैं और वर्तमान में नौवें आचार्य श्री तुलसी गणी का शासन चल रहा है । सभी आचार्यों ने राजस्थानी में रचनाएँ लिखीं, किन्तु वे प्रायः पद्यमय हैं । प्रथम आचार्य श्री भिक्षु ने लगभग ३६ हजार श्लोक परिमाण साहित्य लिखा और चौथे आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने साढ़े तीन लाख श्लोक परिमाण के माहित्य की रचना की। इसमें गद्य-पद्य दोनों सम्मिलित है । पद्य साहित्य अधिक है।
प्रस्तुत निबन्ध में मैं केवल तेरापंथ के आचार्यों तथा साधु-साध्वियों द्वारा रचित राजस्थानी गद्य साहित्य का एक परिचय प्रस्तुत कर रहा हूँ।
आचार्य भिक्ष आचार्य भिक्षु तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक थे। आपका जन्म वि० सं० १७८३ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को मारवाड़ कांठा में कंटालिया ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम शाह वलूजी और माता का नाम दीपाँबाई था। आप पच्चीस वर्ष की अवस्था में वि० सं० १८०८ मृगशिर कृष्णा द्वादशी के दिन स्थानकवासी परम्परा के यशस्वी आचार्य रुघनाथ जी के पास दीक्षित हुए। नौ वर्ष तक उनके साथ रहे । फिर आचार और विचार के भेद के कारण आपने वि० सं० १८१७ चैत्र शुक्ला नवमी को बगड़ी गाँव (अब सुधरी) में अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया और उसी वर्ष आषाढ़ी पूर्णिमा को केलवे में पुनः दीक्षा ग्रहण की । वही तेरापंथ की स्थापना का प्रथम दिन था।
आचार्य भिक्षु अपने युग के महान् राजस्थानी साहित्यकार थे। आपने लगभग अड़तीस हजार श्लोक परिमाण साहित्य रचा । इसमें पद्य साहित्य अधिक है, गद्य कम । आपका सम्पूर्ण पद्य साहित्य प्रकाशित हो चुका है।' गद्य साहित्य अप्रकाशित है । आपने जैन दर्शन के अनेक विषयों पर साहित्यिक रचनाएँ लिखीं। उनमें मुख्य विषय हैंदया-दान का विवेक, अनुकम्पा, व्रत-अव्रत आदि-आदि ।
आपका गद्य साहित्य मर्यादाओं, लिखितों तथा पत्रों के रूप में प्राप्त होता है। आपने नव-गठित संघ को सुदृढ़ बनाने तथा उसका संरक्षण-पोषण करने के लिए अनेक विधान बनाए। उन विधानों के अध्ययन से उनकी आध्यात्मिक उत्कृष्टता, व्यवहार की निश्छलता तथा अन्यान्य तथ्यों का सहज बोध होता है। वे राजस्थानी गद्य में हैं। उदाहरणस्वरूपमर्यादाएं
(१) आचार्य भिक्षु चाहते थे कि गण में वही रहे, जिसके मन में आचार-साधुत्व के प्रति श्रद्धा हो। जो अन्यमनस्कता या अन्यान्य स्वार्थों के वशीभूत होकर गण में रहता है, वह गण को धोखा देता है। उन्होंने वि० सं० १८४५ के लिखत में लिखा
"उण नै साधु किम जाणिये, जो एकलो वेणरी सरधा हुवै । इसड़ी सरधा धारने टोला मांहि बैठो रहे छ । म्हारी इच्छा आवसी तौ माहे रहिसू, म्हारी इच्छा आवसी जद एकलो हुस् ।........ दगाबाजी ठागा सूं टोला माहै रहे तो निश्चय असाध छै। माहे राख जाणवै त्यांन पिण महा दोष छै।"
१. भिक्षुग्रन्थरत्नाकर, भाग १, २-प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता।
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