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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
(e) प्रेष्य-प्रतिमा-समय-९ मास । विधि-नौकर-चाकर आदि से भी आरम्भ, समारम्भ नहीं करवाना।
(१०) उद्दिष्ट-वर्जक-प्रतिमा-समय-१० मास । विधि-इस प्रतिमा वाला श्रावक साधुओं की भांति उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करता है। (अपने लिए बनाया हुआ भोजन आदि ग्रहण नहीं करता), बालों का क्षुर से मुण्डन करता है अथवा शिखा धारण करता है (चोटी रखता है) । घर सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर “मैं जानता हूँ अथवा नहीं।" इन दो वाक्यों से अधिक नहीं बोलता।
(११) श्रमणभूत-प्रतिमा-समय-११ मास । विधि-ग्यारहवीं प्रतिमावाला श्रावक शक्ति हो तो लोच करता है अन्यथा क्षुर से मुण्डन करता है । तीन करण और तीन योग से सावध कार्य का त्याग करता है, और साधुओं की तरह मुंहपत्ति, रजोहरण धारण करता है लेकिन रजोहरण की डण्डी खुली होती है। साधुओं का आचार-महाव्रत, समिति, गुप्तियों का निरतिचार पालन करता है। साधुओं की तरह गोचरी भी करता है किन्तु ज्ञाति वर्ग से उसका प्रेम बन्धन नहीं टूटता, इसलिए वह भिक्षा के लिए ज्ञातिजनों में ही जाता है। पर एषणा समिति का पूरा ख्याल रखता हुआ ४२ दोषों को टालकर भिक्षा ग्रहण करता है । पडिलेहणा आदि क्रियाएँ एवं भिक्षा विधि साधुओं के समान होने से ग्यारहवीं प्रतिमा को जैन आगमों में श्रमणभूत कहा है । वह मुनि के तुल्य होता है, पर मुनि नहीं।
इन प्रतिमाओं का पालन करने वालों को प्रतिमाधारी श्रावक कहते हैं । इन सभी प्रतिमाओं में पाँच वर्ष और छ: मास का समय लगता है, और प्रथम प्रतिमाओं का त्याग यथावत् अन्त तक चालू रहता है। इन प्रतिमाओं में देव, मनुष्य और पशु, पक्षी सम्बन्धी उत्पन्न उपसर्गों को साधक "परिसह आय गुत्ते सहेज्जा" आत्मगुप्त होकर सहन करता है क्योंकि "देह दुक्खं महाफलं" साधना काल में दैहिक कष्टों को समता से सहन करना महान फलदायक है।
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त्याजो महत्तां हि बिति गुर्वी, गृह्णाति चेद् वास्तविक स्वरूपं । न द्रव्यतो गौरवमेति किचिद्, भावात्मकः सोऽतितरां विशिष्टः ॥
-वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती
(श्री चन्दन मुनि)
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यदि त्याग वास्तविक-यथार्थ रूप में हो तो उसकी बहुत बड़ी महत्ता है। त्याग यदि केवल द्रव्य दृष्टि-बाह्यदृष्टि से हो तो उसका महत्त्व नहीं है, भावात्मक (आन्तरिक) त्याग की ही अत्यधिक विशेषता है।
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