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मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म
ऐतिहासिक घटनाएँ, पुरातन महत्त्व और कलात्मक स्थापत्य यह प्रमाणित करते हैं कि जैन श्रमण संस्कृति का इस वीर भूमि पर विशाल एवं गौरवशाली प्रभाव रहा है। मेवाड़ के शासकों का जैन धर्म के प्रति शताब्दियों से संरक्षण एवं श्रद्धा भी इसका एक मुख्य कारण है। मेवाड़ के महाराणाओं ने जैन धर्म को सम्बल दिया, इस सम्बन्ध में कतिपय प्रमाणों का संक्षिप्त उल्लेख द्रष्टव्य है-
यह बड़े खेद का विषय है कि कई महत्वपूर्ण प्रमाणों को हमने ही लुप्त अथवा नष्ट कर दिये हैं। सूक्ष्मदृष्टि से इस बिन्दु पर विचार करने पर यह एक अनहोनी बात प्रतीत होगी क्योंकि हम ही ऐसे प्रमाणों को लुप्त अथवा नष्ट क्यों करें ? लेकिन जितना गहन अध्ययन किया जावे, इसकी पुष्टि और ज्यादा मजबूती के साथ होती है । सर्वप्रथम मन्दिरों के जीर्णोद्वार एवं प्रतिष्ठा के प्रश्न को ही लिया जाये। जैन मन्दिरों के जीर्णोद्वार के समय कई स्थानों पर मन्दिर के पुरातत्त्व को मिटाने का प्रयास किया जाता है। पुरानी प्रशस्ति हटा दी जाती है ताकि यह मालूम नहीं हो सके कि पूर्व में कब और किस व्यक्ति द्वारा मन्दिर निर्माण एवं किस आचार्य की निश्रा में प्रतिष्ठा अथवा जीर्णोद्धार का कार्य सम्पन्न हुआ है। इसके दो कारण है, प्रथम तो नये जीर्णोद्वार कराने व करने वाले की यह इच्छा रहे कि उसी की नामवरी हो द्वितीय पूर्व के उन आचायों का नाम जाहिर नहीं हो पाये जो अन्य गच्छ के थे। नये जीर्णोद्वार किये मन्दिरों में जीर्णोद्धार कराने वाले मुनिगण की नामावली का कई पट्टावली तक वर्णन मिल जायेगा और बड़े-बड़े लाखों पर इसका सुन्दर लिपि में अंक मिलेगा लेकिन मन्दिर निर्माण एवं पूर्व के जीर्णोद्वार करने व कराने वाले महानुभावों का कोई वर्णन नहीं मिलेगा। फलतः ऐसे स्थानों का इतिहास जानना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है अतः दन्तकथाओं का आश्रय लिया जाता है जो इतिहासकार कभी पसन्द नहीं करता । क्या ही अच्छा हो, नवीन जीर्णोद्धार के लेख के साथ पूर्व के जीर्णोद्धार व मन्दिर निर्माण का भी संक्षिप्त विवरण दिया जावे। द्वितीय, हस्तलिखित पुस्तकों के संकलन एवं प्रकाशन की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है। बहुत सी अमूल्य सामग्री पाटन, खम्भात, अहमदाबाद आदि स्थानों पर चली गई है, कुछ ताने में बन्द है। विगत कई वर्षों से मेवाड़ में साधु, मुनिराज द्वारा विचरण प्रायः बन्द सा हो जाने से एवं यति समुदाय की ओर ध्यान नहीं देने से यह सामग्री भी लुप्त हो रही है एवं पता लगाना भी कठिन हो रहा है । इस सम्बन्ध में यह बताना उचित समझता हूँ कि अगर जैन मुनियों के कुछ ग्रन्थ नहीं मिलते तो मेवाड़ का इतिहास अधूरा ही रहता । यह मत मेरा ही नहीं अपितु कई सुप्रसिद्ध इतिहासकारों का भी है । सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टाड ने मांडल उपासरे के यति श्री ज्ञानचन्द्रजी को अपना गुरु माना है एवं इस उपासरे के संग्रह के आधार पर इतिहास के कई पृष्ठ लिखे हैं। क्या ही अच्छा हो, मुनिवर्ग इस ओर भी अपना ध्यान देवें और इस अमूल्य निधि का संकलन ही नहीं अपितु अनुवाद के साथ प्रकाशन करावें ।
समस्त पश्चिमी भारत पर सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति का राज्य था अंग था। सम्प्रति जैन धर्म का महान प्रचारक था। उस समय जीवहिंसा का पूर्ण वंश के जैन राजा चित्रांग ने बसाया। चित्तौड़ में सातवीं शताब्दी तक मौर्यो का
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मेवाड़ के राजाओं की जैन श्रमण संस्कृति के प्रति थड़ा के प्रश्न पर राजा वंशावली की शृंखला ली जावे तो इस शृंखला के अनुसार सत्रहवीं पीढ़ी में भर्तृभट १००० में भर्तृपुर (भटेवर ) गांव बसा गढ़ बनवाया तो सर्वप्रथम श्री आदिनाथ प्रारम्भ किया एवं इसका नाम गुहिल बिहार रखा गया। इसी गाँव से जैनों का इन्हीं राजा भर्तृभट का पुत्र राजा अल्लट (आलूरावल ) था जो राजगच्छ के आचार्य प्रद्युम्नसूरि का भक्त था । राजा
राजा भर्ती भट, अल्लट एवं वैरिसिंह गुहिल से मेवाड़ के शासकों की द्वितीय राजा हुआ जिसने वि०सं० भगवान के चैत्य के निर्माण का कार्य
भतृ पुरीव (भटेवर) गच्छ निकला।
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मौर्य वंश, राजा संप्रति एवं चित्रांग और मेवाड़ इसी राज्य का एक निषेध या चित्तौड़गढ़ को मौर्य राज्य रहा ।
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