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........योगी भी सरोमळती सुणा अभिवादन IEWSawL...
ग्रन्थ हैं। सिद्धसेन दिवाकर को जैन तर्कशास्त्र का आदिपुरुष कहा जाता है, उनके तर्कशास्त्र की व्याख्याएँ आज भी अखण्डित हैं । सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित कल्याणमन्दिरस्तोत्र, द्वात्रिंशका आदि कई ग्रन्थ हैं। मेवाड़ के दूसरे प्रसिद्ध प्राचीनकाल के आचार्य हरिभद्रसूरि हैं जो चित्तौड़ के राजा जितारि के राजपुरोहित थे। उनके आविर्भाव काल के सम्बन्ध में भी मतभेद हैं। मुनिसुन्दर कृत गुर्वावली में इनको मानदेव सूरि का समकालीन माना है । अतः इनका आविर्भावकाल पांचवी शताब्दी होता है लेकिन जिनविजयजी ने कुवलयमाला के आधार पर इनका काल विक्रम की आठवीं शताब्दी माना है। हरिभद्रसूरि बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होंने समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, षड्दर्शन समुच्चय, शास्त्रवार्ता समुच्चय, अनेकान्तजयपताका, धर्मसंग्रहिणी, योग शतक, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका, पूजा पंचाशिका, पंचाशक, अष्टक, षोडशका आदि १४४४ प्रकरण बनाये। कई ग्रन्थ चित्तौड़ में विरचित किये । हरिभद्रसूरि को धार्मिक प्रेरणा देने वाली प्रख्यात विदुषी एवं तपस्विनी साध्वी याकिनी महत्तरा की जन्म भूमि भी मेवाड़ है।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सिद्धसेन दिवाकर एवं हरिभद्र सूरि के अतिरिक्त कृष्णषि, प्रद्युम्न सूरि, जिनवल्लभमूरि, जिनदत्तसूरि एवं दिगम्बर विद्वान एलाचार्य, वीरसेनाचार्य, महाकवि डड्ढा, हरिषेण, सकलकीति, भुवनकीर्ति मेवाड़ में उल्लेखनीय विद्वान् हुए हैं।
कृष्णषि विक्रम की नवीं शताब्दी में बड़े विख्यात जैन साधु हुए, जिन्होंने चित्तौड़ में कई व्यक्तियों को दीक्षित किया। इन्होंने अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया।
प्रद्युम्न सूरि का मेवाड़ के गुहिल राजा अल्लट (वि० सं० १००८ से १०२८) की राजसभा में बड़ा सम्मान था। जिनवल्लभसूरि प्रारम्भ में कुर्चपुरीय गच्छ के श्री जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे जो चैत्यवासी थे, फिर श्री अभयदेव सूरि के पास शिक्षार्थ आये एवं चैत्यवासियों की शास्त्रविरुद्ध प्रक्रियाओं से अप्रसन्न होकर इसे त्याग दिया एवं वि०सं० ११३८ के आसपास श्री अभयदेव सूरि के पास दीक्षा ली। इनका बहुत काल तक मेवाड़ में विचरण हुआ। चित्तौड़ में उस समय चैत्यवासी अधिक थे जिनकी आलोचना की एवं विधि चैत्यों की संस्थापना करवाई, चित्तौड़ उस समय मालवा के राजा नरवर्मा के अधिकार में था। राजा के दरबार में एक समस्या 'कण्ठे कुठार, कमठे ठकार' एक दक्षिणी पंडित ने भेजी, इसकी पूर्ति कोई नहीं कर सका । अत: जिनवल्लभसूरि के पास चित्तौड़ भेजी गई, सूरिजी ने शीघ्र पूर्ति कर दी, इससे राजा नरवर्मा बड़ा प्रसन्न हुआ एवं २ लाख मुद्रा देना चाहा, सूरिजी ने इन्कार कर दिया, एवं राजा को चित्तौड़ के नवनिर्मित मन्दिर की व्यवस्था के लिए कहा, जो की गई। वि०सं० ११६७ में जिनवल्लभसूरि का पट्ट महोत्सव चित्तौड़ में हुआ। उनके शिष्य जिनदत्तसूरि को पट्टधर बनाने का भव्य महोत्सव भी चित्तौड़ में हुआ। मेवाड़ में जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों ने धर्म-प्रचार में हाथ बँटाया है। तपागच्छ एवं तेरापंथ सम्प्रदाय का तो उद्भवस्थान मेवाड़ ही है । स्थानकवासी समाज का भी आरम्भ से ही प्रभाव पाया जाता है।
श्वेताम्बर के साथ-साथ दिगम्बर सम्प्रदाय का भी मेवाड़ दीर्वकाल तक विद्या का केन्द्र रहा है। यहाँ पर प्रसिद्ध साधु एलाचार्य हुए जिनसे वीरसेन ने चित्तौड़ में दीक्षा प्राप्त की। वीरसेनाचार्य ज्योतिष, छन्दशास्त्र, प्रमाण और न्यायशास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे, जिन्होंने धवला टीका पूर्ण की, इसमें ६२००० श्लोक बताये जाते हैं, इस ग्रन्थ की परिसमाप्ति शक सं०७३८ में हुई। हरिषेण चित्तौड़ का रहने वाला विद्वान् था जिसने धर्मपरीक्षा ग्रन्थ वि०सं० १०४४ में पूरा किया। प्राग्वाट (पोरवाड़) जातीय जैन विद्वान् महाकवि डड्ढा का प्राकृत ग्रन्थ पंच संग्रह भी बहुत प्रसिद्ध है । आचार्य सकलकीति और भुवनकीति मेवाड़ के बड़े उल्लेखनीय दिगम्बर विद्वान थे।
१. जैन साहित्य संशोधक, अंक १, खण्ड १. २. खरतरगच्छ पट्टावली। ३. बीरभूमि चित्तौड़, श्री रामवल्लभ सोमानी, पृ० १२..
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