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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड,
यह ग्रन्थ ७००० श्लोक प्रमाण गद्य-पद्यमय रचना है। इसकी रचना अनेक व्याकरण ग्रन्थों के आधार पर की गई है। धातु सूत्र, गण पाठ, उणादिसूत्र वृतबन्ध में हैं। इस व्याकरण की हस्तलिखित प्रति जैसलमेर भण्डार में है। प्रति अत्यन्त अशुद्ध है ।
सिद्धमानुशासन
श्वेताम्बराचार्यों में हेमचन्द्रसूरि का नाम बहुत प्रसिद्ध आचार्यों की श्रेणी में आता है । इन्होंने गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंह की प्रार्थना पर एक शब्दानुशासन की रचना की । इन्होंने इस ग्रन्थ का नाम सिद्धराज और अपना नाम साथ में जोड़कर सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन रखा । इसका रचनाकाल वि० सं० ११४५ के आस-पास है । यह ग्रन्थ बहुत ही लोकप्रिय हुआ । इसी कारण इस पर ६२-६३ टीकाएँ हैं । इस ग्रन्थ की परिपूर्णता की दृष्टि से वृत्तियों, उणादिपाठ, गणपाठ धातुपाठ तथा निमानुशासन भी उन्होंने स्वयं ही लिखे हैं ।
आचार्य का उद्देश्य पूर्वाचायों के व्याकरणों में विद्यमान कमियों को दूर करते हुए एक सरल व्याकरण की रचना करना रहा है । इस शब्दानुशासन में कुल आठ अध्याय हैं, जिनमें से प्रथम सात संस्कृत भाषा के लिये हैं तथा अन्तिम एक प्राकृत भाषा के लिए हैं। प्रत्येक अध्याय में चार पाद है । कुल मिलाकर ४६८५ सूत्र हैं । इस व्याकरण को विशृंखलता, क्लिष्टता, विस्तार और दूरान्वय जैसे दोषों से बचाया गया है। इसकी सूत्र संकलना दूसरे व्याकरणों की अपेक्षा सरल और विशिष्ट प्रकार की है। संज्ञाएं सरल हैं। विधयक्रम, संज्ञा, सन्धि, स्यादि कारकत्व गर स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यात, तद्धित और कृदन्त के रूप में रखा गया है । इस व्याकरण की अनेक विशेषताओं पर डॉ० नेमिचन्दशास्त्री ने विस्तारपूर्वक विचार किया है।"
हेमचन्द्राचार्य अपने इस शब्दानुशासन की रचना के लिए विशेष रूप से शाकटायन के ऋणी रहे हैं। जहाँ पर शाकटायन के सूत्रों से काम चला वहाँ पर वे ही सूत्र रहने दिये तथा जहाँ पर परिवर्तन की आवश्यकता हुई, उसमें परिवर्तन किया । इनके व्याकरण का इतना प्रभाव फैल गया कि इन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा कि. "आकुमारं यशः शकटायनस्य" । अर्थात् शाकटायन का यश कुमारपाल तक ही रहा। क्योंकि तब तक "सिद्धहेमचन्द्रानुशासन' न रचा गया था और न प्रचार में आया था।
दीपक व्याकरण
इस व्याकरण की रचना श्वेताम्बराचार्य भद्रेश्वरसूरि ने की। गणरत्न महोदधि में इसका उल्लेख करते हुए वर्धमान सूरि ने लिखा है- मेवाविनः प्रवरदीपक का उसी की व्याख्या में आगे लिखा है— दीपककर्ता भद्रेश्वरसूरिः । प्रवरश्चासो दीपककर्त्ता च प्रवरदीपककर्ता प्राधान्यं चास्याधुनिक वैयाकरणपेक्षया' सायण रचित धातु वृत्ति में श्री भद्र के नाम से व्याकरण विषयक मत के अनेक उल्लेख हैं। संभवतः वे दीपक व्याकरण के होंगे । भद्रेश्वर सूरि ने इस ग्रन्थ के अतिरिक्त लिंगानुशासन और धातुपाठ की भी रचना की होगी क्योंकि सायण और वर्धमान ने इस प्रकार के उल्लेख किये हैं। इनका समय १२वीं या १३वीं वि० शताब्दी माना गया है ।
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शब्दानुशासन (मुष्टिव्याकरण)
वि० की १२वीं शताब्दी में आचार्य मलयगिरि हुए जो हेमचन्द्रसूरि के सहचर वे उन्होंने भी शब्दानुशासन की रचना की जिसे मुष्टिव्याकरण भी कहते हैं । इन्होंने अपने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना कुमारपाल के राज्यकाल में की है। इस बात के अनुमान का आधार उनके व्याकरण का ख्याते दृश्यते (२२) यह सूत्र है । इसे उदाहरण के रूप उन्होंने "अदहदरातीन् कुमारपाल : " ऐसा लिखा है ।
१. डॉ० नेमिचन्द जैन जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान, पृ० ५३ - ६०. २. पं० अम्बालाल प्रे० शाह – जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० २३.
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