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संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्पर
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यह ग्रन्थ स्वोपज्ञवृत्ति युक्त है । आचार्य क्षेमकीतिसूरि ने बृहत्कल्प की टीका की उत्थानिका में "शब्दानुशासन सनादि विश्वविश्वविद्यामय ज्योति: पुजपरमाणुधटित मूर्तिभिः" इस प्रकार का उल्लेख मलयगिरि के इस व्याकरण के सम्बन्ध में किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि विद्वानों में इस व्याकरण का उचित आदर था। यह व्याकरण ग्रन्थ अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर की ओर से प्राध्यापक पं० बेचरदास दोशी के संपादकत्व में प्रकाशित हो चुका है।
शब्दार्णवव्याकरण वि० सं० १६८० के आसपास खरतरगच्छीय वाचक रत्नसार के शिष्य सहज-कीर्तिगणि ने शब्दार्णव व्याकरण की रचना की । उन्होंने इस व्याकरण ग्रन्थ की रचना अनेक व्याकरण ग्रन्थों का अवलोकन कर की तथा इसे अधिकारों में वर्गीकृत किया। इन अधिकारों को निम्न पद्यों में प्रकट किया है
संज्ञाश्लेषः शब्दाः षत्व-णत्वे कारकसंग्रहः । समासस्त्रीप्रत्यश्च, तद्धिता कृञ्चधातवः ।। दशाधिकारा एतेऽत्र व्याकरणे यथाक्रमम् । साङ गाः सर्वत्र विज्ञ या, यथा शास्त्र प्रकाशिताः ।।
भिक्षुशब्दानुशासन जैन व्याकरण-परम्परा में अतीव अर्वाचीन एवं सर्वाङ्गपूर्ण संस्कृत-व्याकरण के विषय में यदि जानना चाहें तो इसमें भिक्षुशब्दानुशासन पर दृष्टिपात करना होगा। इस व्याकरण ग्रन्थ की रचना की प्रेरणा के स्रोत तेरापंथधर्मसंघ के अष्टम आचार्य कालूगगी रहे हैं। आचार्यजी को संस्कृत विद्या से अगाध प्रेम था। इसी अनुराग ने एक साङ्गपूर्ण नवीन व्याकरण की सर्जना की भावना को जन्म दिया। उनकी इस भावना को मूर्तरूप विद्वद्वर्य मुनि श्री चौथमलजी ने दिया। उनका अध्ययन आचार्य कालूगणी की देख-रेख में सम्पन्न हुआ था। इनका प्रिय विषय व्याकरण था। इस रुचि के कारण ही उन्होंने पाणिनीय, शाकटायन, सारस्वत, सिद्धान्तचन्द्रिका, मुग्ध-बोध, सारकौमुदी, जैनेन्द्र व्याकरण और सिद्धहेमशब्दानुशासन का गहरा अध्ययन एवं अनुशीलन किया। इस अनुशीलन के कारण उनमें आचार्य कालूगणी की भावना की मूर्त रूप देने की क्षमता आ गई। वर्षों के अध्ययन के बाद सभी शब्दानुशासन के ग्रन्थों से आवश्यक सामग्री को लेकर इन्होंने विशाल शब्दानुशासन की रचना की। इसकी रचना थली प्रदेश में छापर में सम्पन्न हुई। इसका रचनाकाल विक्रम संवत् १९८०-१९८८ है। १९८८ के माघ शुक्ला त्रयोदशी शनिवार को पुष्यनक्षत्र में यह कृति पूरी हुई। विशालशब्दानुशासन के सूत्रों में परिवर्तन एवं परिवर्तन परिवर्धन करके इस ग्रन्थ का निर्माण करने के कारण प्रारम्भ में इसका नाम विशालशब्दानुशासन ही रखा गया। पर बाद में मुनि श्री गणेशमलजी की प्रेरणा से इनका नाम भिक्षुशब्दानुशासन रखने की दृष्टि से आचार्य कालूगणी की स्वीकृति के लिये उनके पास भेजा गया । आचार्यजी ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। उसके पश्चात् विक्रम संवत् १९६१ में इसका नाम भिक्षुशन्दानुशासन रख दिया गया।
इस ग्रन्थ के सूत्रों की रचना मुनि श्री चौथमलजी ने की तथा इसकी वृत्ति की रचना का कार्य पण्डितश्री रघुनन्दन शर्मा ने पूरा किया। पण्डितजी व्याकरण के उच्चकोटि के विद्वान् थे। पाणिनीय व्याकरण उन्हें कण्ठस्थ था। इस प्रकार मुनि श्री चौथमलजी और पण्डित रघुनन्दनजी दोनों के संयुक्त प्रयास से विशालकाय भिक्ष शब्दानुशासन भ्याकरण ग्रन्थ पूरा हुआ।
इसमें शब्दों के अनुशासन सूत्रों के साथ-साथ उनकी व्याख्याएँ भी हैं। यह लघु और बृहद् वृत्ति से युक्त है। यह धातुपाठ, गणपाठ, उणादि, लिंगानुशासन, न्यायदर्पण, कारिका संग्रह वृत्ति आदि अवयवों से परिपूर्ण
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