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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
आहार शारीरिक स्वास्थ्य-रक्षा में तो सहायक है ही, इससे मानसिक परिणामों की विशुद्धता भी होती है । दूषित, मलिन एवं तामसिक आहार स्वास्थ्य के लिए अहितकारी और मानसिक विकार उत्पन्न करने वाला होता है। कई बार तो यहाँ तक देखा गया है कि आहार के कारण मनुष्य शारीरिक रूप से स्वस्थ होता हुआ भी मानसिक रूप से अस्वस्थ होता है और जब तक उसके आहार में समुचित परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक उसके मानसिक विकार का उपशम भी नहीं होता ।
धुम्रपान एवं मद्यपान को आधुनिक युवा सभ्यता का प्रमुख अंग माना जाता है। यद्यपि किसी ग्रन्थ में इसके सेवन का विधि-विधान या स्पष्ट निर्देश उल्लिखित नहीं है, तथापि कथित सभ्य समाज का वर्गविशेष इसे भी जीवन का आवश्यक अंग मानता है। आध निक चिकित्सा विज्ञान एवं अनुसन्धानकर्ता अनेक वैज्ञानिकों ने धुम्रपान व मद्यपान को एक स्वर से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तथा जीवन व समाज को खोखला करने वाला बतलाया है। आधनिक चिकित्सा विज्ञान किसी भी व्यक्ति को इनके सेवन की प्रेरणा एवं सलाह नहीं देता है। क्योंकि शारीरिक व मानसिक दोनों दृष्टियों से ये दोनों मानव-स्वास्थ्य के शत्रु हैं। इसी भांति जैन धर्म ने भी धूम्रपान व मद्यपान का प्रबल निषेध किया है। इस संबंध में जैनधर्म का अत्यन्त विशाल दृष्टिकोण है । शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से तो इनका सेवन वयं है ही, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी ये दोनों नितान्त हेय हैं। उपर्युक्त दोनों व्यसन नैतिक दृष्टि से मनुष्य का कितना अधःपतन कर देते हैं इसके अनेक उदाहरण वर्तमान समाज में आए दिन को मिलते हैं । व्यसनरत किसी भी व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास तब तक सम्भव नहीं है जब तक वह इनका पूर्णत: परित्याग नहीं कर देता। जैन धर्म की दृष्टि से धूम्रपान एवं मद्यपान का सेवन जघन्य पाप तो है ही. यह एक ऐसा दुर्व्यसन है जो मनष्य की आत्मा को अधःपतन की ओर ले जाता है। अत: शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से इस व्यसनों का त्याग आवश्यक है। इस सन्दर्भ में आधनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों की यह खोज महत्त्वपूर्ण है कि धम्रपान एवं मद्यपान अनेक शारीरिक एवं मानसिक विकारों के साथ अनेक व्याधियों को उत्पन्न करता है। मद्यपान तत्काल हृदय को प्रभावित कर तामसभाव उत्पन्न करता है।
जैन धर्म में मनुष्य के आचरण की शुद्धता को विशेष महत्त्व दिया गया है । जब तक मनुष्य अपने आचरण को शद्ध नहीं बनाता, तब तक उसका शरीरिक विकास महत्त्वहीन एवं अनुपयोगी है। मनुष्य के आचरण का पर्याप्त प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है। विपरीत आचरण या अशुद्ध आचरण मानव-स्वास्थ्य को उसी प्रकार प्रभावित करता है जिस प्रकार उसका आहार-विहार । आचरण से अभिप्राय यहाँ दोनों प्रकार के आचरण से है-शारीरिक और मानसिक । शारीरिक आचरण शरीर को और मानसिक आचरण मन को तो प्रभावित करता ही है साथ में शारीरिक आचरण मन को और मानसिक आचरण शरीर को भी प्रभावित करता है । इन दोनों आचरणों से मनुष्य की आत्मशक्ति भी निश्चित रूप से प्रभावित होती है क्योंकि आचरण की शुद्धता आत्मशक्ति को बढ़ाने वाली और आचरण की अशुद्धता आत्मशक्ति का ह्रास करने वाली होती है। इसका स्पष्ट प्रभाव मुनिजन, योगी, उत्तम साध और संन्यासियों में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे गृहस्थ श्रावकों में भी आत्मशक्ति की वृद्धि का प्रभाव दृष्टिगत हुआ है जिन्होंने अपने जीवन में आचरण की शुद्धता को विशेष महत्व दिया। ऐसे सन्त पुरुषों में महान् आध्यात्मिक सन्त पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी आदि तथा गृहस्थ जीवन यापन करने वालों में महात्मा गांधी, विनोबा भावे, गुरु गोपालदास जी वरैया, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
आत्मशक्ति या आध्यात्मिक प्रभाव के सम्बन्ध में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भौतिकवाद से प्रेरित होने के कारण यद्यपि स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है, किन्तु परोक्ष रूप से इसका समर्थन अवश्य करता है-यह एक तथ्य है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकता कि दीर्घकाल से रुग्ण और जर्जरित देह वाले व्यक्ति के शरीर में ऐसी कोई शक्ति विशेष अवश्य रहती है जो उसके जीवन को धारण करती है और उसे जीवित रहने के लिए सतत रूप से प्रेरित करती रहती है । मानव शरीर की अन्तनिहित यह शक्ति विशेष मनुष्य को वह दृढ़
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