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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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जैन दर्शन के छः द्रव्यों में से सिर्फ धर्म व अधर्म ही ऐसे हैं जिनका वैदिक धर्म ग्रंथों में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। बाकी जीव, पुद्गल, काल व आकाश ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में अन्यत्र भी आये हैं। यह बहुत कुछ पंच तत्त्वों के समान हैं जिनसे वैदिकों के अनुसार सृष्टि हुई है।
वैदिक जैसे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर की सता में विश्वास करते हैं उसी प्रकार जैन दर्शन के अनुसार भी हमारे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म कर्म-शरीर है । स्थूल शरीर के छूट जाने पर भी यह कर्म-शरीर जीव के साथ रहता है और वही उसे फिर अन्य शरीर धारण कराता है। आत्मा को मनोवैज्ञानिक चेष्टाओं-वासना, तृष्णा, इच्छा आदि से इस कर्म-शरीर की पुष्टि होती है। इसलिए कर्म-शरीर तनी छूटता है जर जीव वासनाओं से ऊपर उठ जाता है, जब उसमें किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह जाती। जैन दर्शन में मोक्ष की व्यवस्था यही है । इस प्रकार उपरोक्त दर्शन जैन धर्म की तत्त्वमीमांसा (Metaphysics) है।
जैन दर्शन का इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण पहलू उसका कर्तव्यशास्त्र (Ethics) है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है; पर उसका मार्ग है । जैन दर्शन के सात तत्त्व हैं। वे हैं-जीव, अजीव, 'आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । कुछ ने इसमें पाप व पुण्य जोड़ कर ६ कर दिए हैं। जैन दर्शन आस्रव के सिद्धान्त में विश्वास करता है जिसका अर्थ है कि कर्म के संस्कार क्षण-क्षण प्रवाहित हो रहे हैं, जिनका प्रभाव जीव पर पड़ रहा है। इन्हीं से जीव अजीव से बंध जाता है। अतएव इस को मिटाने का आय यह है कि साधक इनसे अलिप्त रहने का प्रयास करे । यह प्रक्रिया संवर कहलाती है। किन्तु यह भी पास नहीं है। आत्मा को पूजित संस्कार भी घेरे हुए हैं । इनसे छूटने की साधना का नाम निर्जरा है। जीवन नौका में छेद है जिससे पानी उसमें भरता जा रहा है। इन छेदों को बन्द करने का नाम ही संवर है किन्तु नाव में जो पानी भरा हुआ है उसको उलीचने नाम निर्जरा है। संवर और निर्जरा द्वारा जिसने अपने को संस्कारों अथवा आस्रवों से मुक्त कर दिया, वही मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार यह मोक्षप्राप्ति का मार्ग है। मोक्ष जीवन का अंतिम ध्येय है । जिसने मोक्ष प्राप्ति करली वह स्वयं परमात्मा है। जो आत्मा सिद्ध अथवा मुक्त हो गयी वह चार गुणों से युक्त होती है। यह गुण हैं-अनंत दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य।
इस प्रकार जैन दर्शन ने तत्व मीनाता (Metaphysics) व कर्तव्य-शास्त्र (Ethics) ही नहीं किंवा तर्कशास्त्र को भी एक अद्भुत देन दी है जो संभवत: तर्क प्रणाली में सर्वश्रेष्ठ है। वह है-अोकान्तवाद व स्याद्वाद । यह प्रणाली सत्य की खोज में अपूर्व है पर साथ ही अहिंसा के विकास का भी चरम बिन्दु है ।
अहिंसा का आदर्श आरम्भ से ही भारत के समक्ष रहा था किन्तु इसकी चरम सिद्धि इसी अनेकान्तवाद में हुई । विपक्षी की बात भी सत्य हो सकती है। सत्य के अनेक पहलू हैं । यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन तर्क-प्रणाली है जो अनेकान्तवाद है। यही आगे जाकर स्थाद्वाद हुई । इस सिद्धान्त को देखते हुए ऐसा लगता है संसार को आगे चलकर जहाँ पहुँचना है, भारत वहाँ पहले ही पहुंच चुका था । संसार में आज जो खतरे व अशान्ति है, उसका कारण क्या है ? मुख्य कारण यह है कि एक वाद के मानने वाले दूसरे वादों को मानने वालों को एकदम गलत समझते हैं। साम्यवादी समझते हैं कि प्रजातंत्री एकदम गलत हैं और प्रजातंत्र के समर्थकों की मान्यता है कि सारी गलती साम्यवादियों की है। इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो कोलाहल है इसका मूल कारण यह है कि लोग विरोधियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु हो गये हैं फिर भी सत्य यह है कि कोई भी मत न तो सोलह आने सत्य है और न सोलह आने आने असत्य है। इसलिये आँख मूंदकर किसी के मत को खण्डित करना-जैन सिद्धान्तों के अनुसार, जिसको वह अनेकान्तवाद कहते हैं, एक प्रकार की हिंसा है, घोर मिथ्यात्व है। समन्वय, सहअस्तित्व और सहिष्णुता-ये एक ही तत्त्व के अनेक नाम हैं। इसी तत्त्व को जैन दर्शन शारीरिक धरातल पर अहिंसा और मानसिक धरातल पर अनेकान्तवाद कहता है ।
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