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तेरापंथ के धर्मी धावक अर्जुनलालजी पोरवाल ६७
रात्रि में उन्होंने उसे लेने से इन्कार कर दिया । पारिवारिकों ने उन पर बहुत दबाव डाला परन्तु वे टस से मस भी नहीं हुए। वैद्य ने भय दिखलाया कि ऐसा न करने से सम्भव है तुम अपने प्राणों से ही हाथ धो बैठोगे । अर्जुनलालजी ने कहा - " औषध लेते हुए भी तो अनेक व्यक्ति मर जाते हैं तो फिर इसका क्या निश्चय है कि मैं नहीं मरूंगा । मैं जीवित रहने के लोभ में अपना व्रत भंग नहीं करूँगा ।" स्वामीजी के नाम का जप करते हुए उन्होंने वह रात्रि आनन्द से निकाल दी और फिर कुछ ही दिनों में बिल्कुल स्वस्थ हो यये । उनकी सुदृढ़ आस्था ने उनको इस प्रकार से अनेक आवर्ती में से बाहर निकाला और तट पर पहुँचाया था ।
विभिन्न प्रत्याख्यान - अर्जुनलालजी बारह व्रतधारी श्रावक थे। प्रतिदिन चौदह नियम 'चितार' कर वे अपनी दिनचर्या को और भी अधिक नियन्त्रित कर लेते थे । समय-समय पर अपने प्रत्याख्यानों को अधिकाधिक कसते रहने की प्रक्रिया ने उनके जीवन को काफी अंशों में आरम्भ-समारम्भों से मुक्त कर दिया । उनके प्रत्याख्यान विराग-प्रेरित तो हुआ ही करते थे परन्तु कभी-कभी उस विराग के उद्भावन में कोई घटना भी कारण बन जाती थी । संवत् २००७ में वे अपनी आँखों का आपरेशन कराने के लिए भिवानी गये। मार्ग में किसी रेलवे स्टेशन पर एक होटल से उनके साथ वाला व्यक्ति साग और पूड़ियाँ खरीदकर लाया। खाने की तैयारी की तब उन्हें पता चला कि वह साग निरामिषभोजियों के लिये काम का नहीं है। अपनी पत्तल में आमिष को देखकर उनके मन में इतनी वितृष्णा हुई कि उसी समय उन्होंने बाजार में बने भोजन का सदा के लिए परित्याग कर दिया ।
उनके कुछ विशिष्ट प्रत्याख्यान इस प्रकार थे - संवत् १९९२ में उन्होंने रात्रिभोजन हरितृकाय-भोजन और संचित जल-पान का आजीवन परित्याग कर दिया । उसी वर्ष आजीवन शीलव्रत ग्रहण कर चारों स्कन्धप्रत्याख्यान सम्पन्न कर दिये। तभी से प्रतिदिन " पौरसी प्रत्याख्यान" रखने लगे तथा खाद्य और पेय के रूप में
द्रव्यों से अधिक ग्रहण करने का त्याग कर दिया। फिर संवत् १६६६ से केवल ६ द्रव्य ही रखे । वे इच्छा व्यक्त करके कोई भोज्य पदार्थ नहीं बनवाते, जो परोसा जाता वही खा लेते। भोजन में नमक आदि की अल्पाधिकता होने पर भी वे कभी व्यक्त नहीं करते । स्नान के लिए दो सेर अचित्त जल से अधिक का प्रयोग नहीं करते । संवत् १६८६ में उन्होंने दहेज लेने तथा देने का, दहेज लेने वाले के वहाँ भोज में सम्मिलित होने का, मृत्यु-भोज करने तथा उसमें सम्मिलित होने का परित्याग कर दिया। पहले वे सामाजिक भोज में सम्मिलित होते थे परन्तु बाद में उसका भी परित्याग कर दिया। प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते और कम से कम १२ सामायिक करते । प्रतिवर्ष आचार्य श्री की सेवा में जाते। अधिक समय निकलने पर घी का परित्याग रखते ।
महान् तपस्वी -- अर्जुनलालजी का एक महान् तपस्वी श्रावक थे । तपस्या उनके जीवन का संबल बन गयी थी । प्रतिवर्ष कोई न कोई लम्बी तपस्या अवश्य करते थे । पारणा के विषय में वे कभी बहुत पहले नहीं बतलाते थे । परिवार वाले पूछते रहते तब वे प्रायः वही उत्तर देते कि पारणा करना होगा तब मैं स्वयं कह दूंगा । वे यथासम्भ चौविहार तपस्या करने का ही प्रयास करते । लम्बी तपस्याओं में भी १०-१२ दिनों के अन्तर से ही प्रायः जल ग्रहण करते । अन्तिम १२ वर्षों में अचक्षु रहे, फिर भी उनकी तपस्या का क्रम कभी भंग नहीं हुआ। वे पहले प्रतिमास २ उपवास किया करते थे, संवत् १६६२ से ४ उपवास करने लगे, उसके पश्चात् संवत् १६६७ से पाँचों तिथियों के उपवास प्रारम्भ कर दिये तब प्रतिमास कम से कम १० उपवास नियमतः होने लगे। पहले वे प्रत्येक दीपावली पर “बेला” किया करते थे, संवत् २००० से "तेला" और २४ प्रहरी पौषध करने लगे, संवत् १९९२ से उन्होंने प्रतिवर्ष पर्युषण पर्व पर अठाई तप प्रारम्भ किया, वह अन्तिम वर्ष तक निर्विघ्न चलता रहा। एक बार चौविहार लड़ी तप करते हुए वे संलग्न रूप से ह तक चढ़े और फिर वैसे ही उतरे । संवत् १६८८ में यही लड़ी-तप उन्होंने दूसरी बार भी किया। एक बार २१ दिनों तक का और दूसरी बार १५ दिनों तक का चौविहार लड़ी-तप भी उन्होंने किया। उनकी समग्र तपस्या के उपलब्ध आँकड़े अग्रोक्त हैं
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