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राजस्थान जैन चित्रकला: कुछ अप्रकाशित साक्ष्य
0 श्री ब्रजमोहनसिंह परमार
अधीक्षक, कला सर्वेक्षण, पुरातत्त्व व संग्रहालय विभाग, जोधपुर (राज.)
राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार ईसा पूर्व में ही हो चुका था, परन्तु कलात्मक साक्ष्यों की प्राप्ति इस क्षेत्र में ईस्वी सन् की ६-७वीं शताब्दियों से पूर्व की अब तक नहीं हुई है। ६-७वीं शती से लेकर हवीं शती तक जैन कला के साक्ष्य कांस्य और प्रस्तर प्रतिमाओं में सीमित स्थानों से ही मिले हैं, परन्तु बाद में यह स्थिति नहीं रहती। एक तो यह कि राजस्थान के चारों कोनों में अनेक स्थानों से विभिन्न तीर्थंकरों और जैन मतों के अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा व उनकी प्रतिष्ठा हेतु जिनालयों के निर्माण के उदाहरण पिण्डवाड़ा-वसन्तगढ़, भीनमाल, देलवाड़ा, ओसियाँ, लोद्रवा, जैसलमेर, चित्तौड़, आहाड़ (उदयपुर), केशवराय पाटन आदि स्थानों से मिलने लगते हैं, दूसरी बात यह है कि प्रस्तर कांस्य प्रतिमाओं के अतिरिक्त जैन कला की अवतारणा, ताड़पत्रों, काष्ठपट्टिकाओं और कागज पर होने लगती है। १४-१५वीं शती और कुछ बाद की इस जैन कला को कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश शैली और पश्चिमी भारतीय कला शैली नाम दिया है। यहाँ इन पंक्तियों में जैन कला के शोधकर्ताओं की जानकारी और अध्ययन हेतु ऐसे ही कुछ अद्यावधि अप्रकाशित साक्ष्यों पर प्रकाश डाला जा रहा है।
चित्रित काष्ठ फलक चित्र संख्या १ व २ के काष्ठफलक या पट्टिकायें जिनदत्तसूरि के जैसलमेर स्थित प्रसिद्ध ग्रंथ भण्डार में संग्रहीत हैं । इनके दोनों ओर लाख के रंगों के माध्यम से चित्र बने हैं। वास्तव में इनका प्रयोग ताड़पत्रों या कागज के हस्तलिक्षित ग्रंथों को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए किया जाता रहा होगा। इन पर बने चित्र जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। इनमें से एक पटली या पट्टिका कला की दृष्टि से बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है, जिसमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ की पर्यकशायी माता शिवा द्वारा चौदह मांगलिक स्वप्नों को देखे जाने, हरिणगमेसिन-इन्द्र के चित्र चित्रित हैं। इनके अतिरिक्त रथारूढ और केशलुचन करते नेमिनाथजी के चित्र भी क्रमश: इस पर अंकित हैं। दूसरी ओर पटली को लाल, पीले
और काले शोख रंगों द्वारा कमल-लता के आवर्तनों के मध्य कुमारिका, गज, शार्दूल और हंस-मिथुनों का बड़ा ही सुन्दर चित्रण है। कालक्रमानुसार इन पटलियों के चित्र १३-१५वीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं।
चित्रित कल्पसूत्र केन्द्रीय संग्रहालय, जयपुर में संग्रहीत यह कल्पसूत्र वि० स० १५४७ का है। इसका वर्ण्य विषय महावीर स्वामी, पार्श्वनाथ और अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) तथा इनके पंचकल्याणकों से सम्बन्धित हैं । कुल मिलाकर ६० पन्नों (२६४११ से० मी०) वाली इस प्रति में ३३ चित्र (११४७-८ से० मी०) हैं । इन चित्रों के विषय बताने से पूर्व यहाँ इस कल्पसूत्र के प्रशस्ति पत्र का मूल-पाठ देना उपयुक्त होगा
१. स्टडीज इन जैन आर्ट (यू०पी० शाह) वाराणसी, १९५५, पृ० २७-३० २. मार्ग, भाग ४, सं० २ पृ० ३७
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