________________
१७२
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
D.-.-
.--.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-...-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-..
संवत् १५४७ वर्षे वैशाख सुदि ७ शिन् म० आकालखितं ॥५॥ शुभंभवतु ॥छ। ॥॥॥छ। ॥छ॥ ॥छ।
उपर्युक्त पाठ से स्पष्ट है कि इस कल्पसूत्र की लिपि देवनागरी है परन्तु इससे यह ज्ञात नहीं होता है कि कल्पसूत्र की इस प्रति की रचना कहाँ की गई, जबकि सन् १४३६ ई० और सन् १४६५ वाले कल्पसूत्रों में इनके रचनास्थल के नाम दिये गये हैं जो क्रमश: माण्डू व जौनपुर में रचे गए। कागज पर काली स्याही से लिखे इसके पन्नों की नाप २६ x ११ स० मी० और इन पर बने चित्रों की नाम प्रायः ११४७ से ८ से. मी. है। पाठक की सुगमता के लिए लेखक ने प्रत्येक पन्ने के दाहिने और निचले कोने में काली स्याही से उनकी संख्या लिख दी है।
इस कल्पसूत्र में पद्मासनस्थ महावीर, अष्टमगल, इन्द्र द्वारा सिंहासन से उतरकर नमोकार उच्चारण, इन्द्र द्वारा हरिणगमेषिदेव को ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ से भगवान महावीर के भ्रूणहरण के आदेश, त्रिशला द्वारा चौदह स्वप्नों का देखा जाना, राजा सिद्धार्थ द्वारा ज्योतिषियों से स्वप्नों का फल पूछना, त्रिशला रानी द्वारा शोक व हर्ष प्रदर्शन, महावीर जन्म (चित्र संख्या ३) महावीर का देवताओं द्वारा स्नान, इन्द्र को सूचना, महावीर की कौतूकपूर्ण क्रीड़ा, शिविका विमान पर सवार महावीर, महावीर द्वारा केशलुचन, महावीर कैवल्यज्ञान (समवसरण), सिद्धार्थ शिला स्थित महावीर और उनके शिष्य गौतम, पार्श्व-जन्म, पार्श्व-दीक्षा, पार्श्व द्वारा पंचाग्नि तप का विरोध, अश्वारोही, जलप्लावन से धरणेन्द्र द्वारा पार्श्व रक्षा, पार्श्व-कैवल्य ज्ञान, पार्श्व-समवसरण, नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) जन्म अरिष्टनेमि द्वारा केश लुचन, दीक्षा, विदेहक्षेत्र के बीस विहरमान, महावीर के एकादश गणधर, वीरसेन का पालन, गरुशिष्य, जैनाचार्य द्वारा शिष्य को धार्मिक शिक्षा आदि आदि के तैतीस चित्र हैं ।
इनके अध्ययन से तत्कालीन सामाजिक स्थिति, रीति-रिवाजों, परम्परागत विश्वासों, धार्मिक विचारधाराओं, प्रकृति-चित्रण पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। जहाँ तक चित्रशैली का सम्बन्ध है, इस कल्पसूत्र को पश्चिमी भारतीय चित्रशैली की श्रेणी में अपभ्रंश कला शैली का प्रतिनिधि कहा जा सकता है जो सम्पूर्ण गुजरात, राजस्थान और उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के कुछ भागों में ११वीं शती से लेकर १५वीं शताब्दी तक पनपी। इस क्षेत्र की परवर्ती कलाशैलियों ने इसी अपभ्रंश शैली की कुछ विशेषताओं को ग्रहण कर बाद में कुछ परिवर्तन कर अपना-अपना निजी रूप धारण किया। राजकीय संग्रहालय, जयपुर के इस कल्पसूत्र की कलात्मक तुलना प्रिंस आफ वैल्स म्युजियम, बम्बई के संग्रह के चित्रित कल्पसूत्र, कालकाचार्य कथा और उदयपुर के सरस्वती भवन संग्रह के चित्रित कल्पसूत्र (वि० सं० १५३६) से की सकती है। इन दोनों की भांति इस कल्पसूत्र में भी नारी व पुरुष आकृतियों की नाक व ठुड्डी नुकीली है, धनुषाकार भौंहों के नीचे कनपटी तक विस्फारित नेत्र, दो में से एक पाली आँव, छंटी नुकीली दाढी, तिलकयुक्त चौड़ा ललाट, रक्ताभ ओंठ और विशेषतया पुरुषों के उभरे मांसल वक्ष और नारी आकृतियों को सुन्दर वस्त्राभूषणों से युक्त चित्रित किया गया है।
इसकी रंगयोजना में पृष्ठभूमि लाल रंग की है, इसे राजस्थान के पारम्परिक कलाकार उस्ताद हिसामुद्दीन के शब्दों में हिंगलू" भी कहा जा सकता, क्योंकि इसमें सिन्दूर की मिलावट है । इस रंग का निर्माण झरबेरी एवं पीपल की छाल और लाख मिलाकर किया जाता था । हाशियों की किनारी नीले रंग की है, जो किसी पत्ते से तैयार किया जाता था । पुरुषों व नारियों के पीले रंग को सोने के बारीक बर्क को चढ़ाकर बनाया है। यदि सुनहरा रंग होता तो भरे गये स्थानों में समता होती । बर्क के चढ़े होने से कहीं सुनहरा रंग है और कहीं उपड़ा हआ प्रतीत होता है। सफेद रंग का प्रयोग आकृतियों की आँखों, वस्त्रों, आभूषणों तथा हंसों के चित्रण में हुआ है। इस रंग को 'शंख' या हड़ताल को फूंककर बनाया गया होगा । नीले रंग का प्रयोग चित्रों में रिक्त स्थान भरने, हाथी, घोड़े, मोर और पानी को दिखाने में हुआ है । काले रंग को रेखाओं, केश, भौंहों को रंगने के काम में लिया गया है। इस काले रंग
१. ललित कला सख्या ६ सन् १९५६ (देखिए कार्ल खण्डेलवाल और मोतीचन्द्र का ‘ए कन्सीडरेशन आफ ऐन
इलस्ट्रेटेड मेनुसक्रिप्ट फ्राम माण्डव दुर्ग सन् १४३६ ई०') केन्द्रीय संग्रहालय, जयपुर कल्पसूत्र चित्र रेखाकर्म और रंगयोजना की दृष्टि से माण्डू बाले कल्पसूत्र से कुछ निम्नस्तर के हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org