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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
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'काम हुआ है वह गुजरात व गुजराती भाषा में अधिक हुआ है या कुछ ग्रंथ व लेख अंग्रेजी भाषा में निकले हैं । इससे हिन्दी क्षेत्र में व राजस्थान के निवासियों को जैन चित्र कला की वास्तविक जानकारी व महत्त्व विदित नहीं है । इस दृष्टि से कुछ विशेष बातें सूचित कर देना आवश्यक समझता हूँ ।
अपभ्रंश चित्रकला की परम्परा जैन समाज में अब तक चली आ रही है, यद्यपि एक चश्म, डेढ़ चश्म आदि लघु चित्रशैली में काफी अन्तर आ गया है फिर भी मुगल परम्परा का अन्य चित्र शैलियों पर जो प्रभाव पड़ा उतना जैन चित्र शली पर नहीं पड़ा। जैनों की अपनी एक विशिष्ट परम्परा रही है। अतः स्थानीय विशेषताओं के साथसाथ जैन चित्रकला खूब फली फूली । १७वीं शताब्दी में सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में चित्रकला का खूब विकास हुआ। इसी काल में जैनों के सचित्र विज्ञप्ति पत्र का विकास प्रारम्भ होता है। इसी तरह संग्रह आदि भौगोलिक ग्रंथ तथा अनेक चरित काव्य सचित्र रूप में लिखे गये । शाही चित्रकारों का भी उपयोग किया गया । विजयसेगरि वाला सचित्र विज्ञप्ति लेख और धन्ना-शालिभद्र चौपाई की प्राप्त प्रति नाही चित्रकार शालीवाहन आदि के द्वारा चित्रित हैं ।
१७वीं शताब्दी में शिथिलाचारी जैन यतियों से मथेन नामक एक जाति निकली। कहा जाता है कि सं० १६१३ में सम्राट अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान विनयचन्द्र सूरि बीकानेर आये और यहाँ के मन्त्री संग्रामसिंह बच्छावत की प्रेरणा और सहयोग से क्रियाउद्धार किया । तत्र यहाँ के उपाश्रयों में शिथिलाचारी यति रहते थे । उनमें से जिन्होंने शुद्ध साधु आचार को अपनाया वे तो सूरिजी के साथ हो गये और जो लोग जैन साधु के कठिन आचारों को पालने में असमर्थ रहे वे गृहस्थ हो गये। उनकी आजीविका के लिए उन्हें वंशावली लेखन प्रतियों की प्रतिलिपि करना, चित्र बनाने आदि का काम करने के लिए, प्रोत्साहित किया गया। उनकी जाति मथेण, जिसे महात्मा, मथेण भी कहते हैं, कायम हुई । अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मथेनों में कई विद्वान ग्रन्थकार, कवि हुए और बहुत से व्यक्ति प्रतिलिपियाँ करके और कुछ चित्रकारी करके अपनी आजीविका चलाते थे। बीकानेर के साहित्य और कला प्रेमी महाराजा अनूपसह के आश्रय में ऐसे कई मथेण साहित्यकार और प्रतिलिपिकार हुए हैं जिनकी लिखी हुई सैकड़ों हस्तलिखित प्रतियां और रखे हुए ग्रन्थ अनूप संस्कृत लायब्रेरी में संग्रहीत हैं। मवेश जाति के अनेक चित्रकारों के चित्रित जैन-नेतर ग्रन्थ काफी संख्या में जैन- जैनेतर भण्डारों में प्राप्त हैं। उनकी अपनी एक अलग चित्र शैली बन गई जिनमें सैकड़ों - चौबीसियाँ अनेक फुटकर चित्र और बहुत सी रास चौपाई आदि चरित्र काव्यों की प्रतियाँ प्राप्त हैं। इनमें एक-एक प्रति में दस, बीस, पचास और अस्सी, सौ तक विविध भावों वाले चित्र पाये जाते हैं । अनूप संस्कृत लायब्रेरी में तो राजस्थानी बातों आदि की कई सचित्र प्रतियाँ मथेणों की चित्रित की हुई प्राप्त हैं और हमारे कलाभवन में भी चन्दनमलयागिरी, शालिभद्र चौपाई और ढोला मारू की बात आदि प्राप्त है जोधपुर, जयपुर, पीपाड़, आदि अनेक स्थानों में मथेनों के चित्रित किये हुए बहुत से जन-जनेतर ग्रंथ मेरे देखने में आये हैं। छोटी-मोटी अनेक मोबीसियों भी हमारे संग्रह में हैं ।
मथेनों के अतिरिक्त और भी कई पेशेवर जातियों और व्यक्तियों को जैनों ने काफी आश्रय दिया । जयपुर के एक चित्रकार को मुर्शिदाबाद और कलकत्ते में बुलाकर बड़े-बड़े विशाल चित्र बनाये गये । कलकत्ते के श्वेताम्बर पंचायती मन्दिर, बद्रीदासजी आदि के मन्दिर में जयपुर के चित्रकार के बनाये हुए चित्र आज भी बने हुए हैं। बीकानेर के क्षमा- कल्याण ज्ञान भण्डार में दो कल्पसूत्र की बहुत सुन्दर सचित्र प्रतियाँ जयपुरी चित्रकारों की चित्रित हैं । बीकानेर, भांडासर और महावीरजी के मन्दिर में उस्ताद हिमाशुद्दीन के बनाये हुए शताधिक भित्तिचित्र हैं। जयपुर के चित्रकारों से आज भी जैन कल्पसूत्र आदि के चित्र स्वर्णक्षरा प्रतियों में बनवाकर गुजरात आदि में भेजे जाते हैं। इस तरह राजस्थान की चित्रकला के विकास एवं समृद्धि में जैनों का बहुत बड़ा योगदान है। जोधपुर, उदयपुर, सिरोही आदि के अनेकों सचित्र विज्ञप्ति चित्र वहीं के कलाकारों से जैन समाज ने चित्रित करवाये। जयपुर का सचित्र विज्ञप्ति पत्र अजीमगंज पहुँचा । इस तरह राजस्थान की जैन चित्रकला का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ ।
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