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कर्मयोगी श्री केसरीमलगी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
एक ही कथ्य को विविध प्रकार से कहा गया है, किन्तु सभी कथनों की भाषिक संरचना समान है। "कौन हैं....जो ऐसा करें" संरचना का प्रतिपाद्य यहाँ निषेधात्मक है । बन्दी (दूत) के वचनों को सुन्दर ताल ठोककर मदनराज अपने सामन्तों के साथ यहाँ से चल पड़ा, मानों समुद्र उछल पड़ा, मानों समुद्र उछल उठा हो । उसकी चलने की अनिवार्यता के वर्णन में कवि पुनः उपर्युक्त संरचना का ही प्रयोग करता है---
विसहरु पुप्फुवंतु को छिदइ। फुफकारते हुए सर्प को कौन रोकता है कहकर कवि ने मदनराज की स्थिति प्रकट कर दी है। अर्थात् सर्प फुफकारता रहे उसे कोई नहीं रोकता, वैसे ही मदनराज को कौन रोकता, वह क्रुद्ध होकर चल पड़ा। मदनराज के प्रति कवि की भावना व्यक्त हो जाती है। कविकृत चयन, वस्तुत: उसकी दृष्टि से प्रभावित होता है अतएव भाषिक संरचना से कवि के मानस तक पहुँचा जा सकता है, यह निर्विवाद है। एक ही पाठ में संरचना का आवर्तन विविध कथ्यों के लिए भी किया जा सकता है, किन्तु ये विविध कथ्य भी एक घटना से संबद्ध होने के कारण परस्पर संसक्त हो जाते हैं, 'मयणपराजयचरिउ' का यह प्रसंग द्रष्टव्य है
जिम जिम सिय-भेरीरव गजहि । तिम तिम पंच कुदंसण भजहि ॥ जिम जिम पंच महब्वय दुहिं । तिम तिम पंचिदिय मणि संकहिं ।। जिम जिम धम्मणिवह संचल्लाह । तिम तिम कम्मणिवह मणि सल्लहिं ।। जिम जिम सत्त तत्त चम्मक्काहि । तिम तिम सत्त महाभय संकहि ।। जिम जिम पायाच्छित पयहि । तिम तिम सल्लतय ओहदहिं ।। जिम जिम चारित्तोहु पयासइ ।
तिम तिम दिढ पमायबलु णासइ ।। -(मयणपराजयचरिउ, २-६६) इस संरचना का प्रयोग कारण-कार्य के त्वरित सम्बन्ध की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है अर्थात ज्योंही अमुक घटना घटी त्योंही दूसरी घटना भी। दूसरी घटना प्रथम घटना के परिणामस्वरूप है, यदि प्रथम न घटती तो द्वितीय भी न घटती । परन्तु विविध प्रसंगों के अवलोकन से सिद्ध हो जाता है कि अपभ्रंश का रचनाकार सामान्यतः समान संरचना के आवर्तन का अभ्यस्त है । भाषिक संयन्त्र का अभ्यस्त एवं पुनरावर्तित प्रयोग ही शैली है। अतएव यह भाषिक-प्रयोग अपभ्रंश चरितकाव्य की शैली का विशेष पक्ष है। मयणपराजयचरिउ में अलंकार संरचनाएँ लगभग नहीं हैं, परन्तु आवर्तन का विधान अवश्य है । समान संरचना वाले पदबन्धों का मध्यप्रशासन भी इन चरिउकाव्यों में प्रवृत्ति के रूप में दिखलाई पड़ता है, इस विधान में अलंकरण नहीं है, सरल पदबन्ध हैं
णरजम्मलद्धण, भावए विसुद्धेण, जिणपुज्ज जो करइ, मुनिचरण मणे धरइ । सज्झाउ अणुसरइ, संजमई संचरइ ।
तवणियमभारेण, दिण गमइ सारेण । -(करकंडुचरिउ, ६-२०) यह ठीक है कि गद्य संरचना और काव्य-संरचना में अन्तर होता है, किन्तु काव्य में भी उपवाक्य तो होते ही हैं, यह अलग बात है कि छन्दानुरोध से उन्हें चरणों में तोड़कर लिखा जाय । परन्तु प्रशासन की प्रवृत्ति, पदबन्ध प्रयोग की प्रवृत्ति आदि विशेषताओं का प्रत्यायन तो उनमें होता ही है। एक विशेष बात यह है कि अपभ्रंश की इन संरचनाओं से कालांतर में विकसित गद्य संरचना का भी बहुत स्पष्ट आभास होता है।
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