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आशीर्वचन
कर्मशक्ति का अनूठा उदाहरण
0 साध्वी श्री सुमंगला निरुत्साही व्यक्ति कुछ करने के लिए अवसर की अनन्त सागर है। आवश्यकता होती है, उन विकीण प्रतीक्षा में रहता है, किन्तु इसके विपरीत कर्मठ एवं शक्तियों को केन्द्रित कर कुछ कर गुजरने की। जिसकी साहस-सम्पन्न ब्यक्ति हर परिस्थिति को अवसर बनाकर शक्तियाँ जागृत हैं, उसके लिए कुछ भी अलभ्य एवं कुछ कर गुजरने की क्षमता रखता है।
असंभव नहीं हैं। जो पूर्ण निष्ठा एवं साहस के साथ तेरापंथ समाज के बलिदानी, कर्मठ एवं समाज सेवी कर्मयात्री होगा वह ब्रह्माण्ड की बहुत-सी शक्तियाँ अपने कार्यकर्ता श्री सुराणाजी का जीवन एक जलता दीपक है। में समाहित करने की क्षमता रखेगा। जो कर्मण्यता की अनवरत लौ बिखेरता हुआ समाज को श्री सुराणाजी का जीवन कर्म-शक्ति का अनूठा रोशनी प्रदान कर रहा है। उनकी त्याग, बलिदान, उदाहरण है । वे अपनी धुन के धनी हैं। जिस कार्य में जिस निःस्वार्थ सेवा, निष्ठा एवं कर्तव्य के प्रति जागरूकता दीपक निष्ठा के साथ जुट जाते हैं। वे उसे पूर्ण करने का भी दृढ़ का पतिबिम्ब है जो कम का कुरुक्षेत्र बनकर हर क्षण संकल्प रखते हैं क्योंकि "प्रारब्धमुत्तमजनाः न परित्यजन्ति" सतर्कता का सन्देश दे रहा है।
का सिद्धान्त उनका जीवन व्रत बन चुका है। सही माने में मानव गर्जतो, उछलती शक्तियों का
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सजग प्रहरी
0 साध्वी श्री विनयश्री (डूंगरगढ़) मानस-सागर में लहराते विचारों की ऊर्मियों को महापुरुष जगत को अपने ज्ञान, आचार, विचार सत्वर ही अमिट क्रियान्विति का रूप देने में सुराणाजी से ज्योतित करना चाहते हैं, उसमें आसक्त होकर नहीं, भूल नहीं करते हैं । तरुण जैसा ओज, युवक जैसा उत्साह, यश-पिपासा से नहीं परन्तु पावन कर्तव्य मानकर समाज वृद्ध जैसा अनुभव इस त्रिवेणी संगम से प्रवहमान सरिता के लिए खपते हैं, तपते हैं। सहस्रों मूच्छित प्राणों में चेतना का संचार कर रही है। श्री सुराणाजी आत्म जागृति के सजग प्रहरी है । जिन कार्यक्षमता का दर्शन कण-कण में टपक रहा है। हर घड़ियों में संसार के साधारण प्राणी सुख-शय्या में सोकर क्षण कार्य के प्रति समर्पित रहना, इनकी सहज रुचि है। शारीरिक पोषणता को बढ़ाते हैं, उन घड़ियों में सुराणाजी ये जागरूकता के सजग प्रहरी हैं । इन्होंने कांठा क्षेत्र के इस बहुत जल्दी निद्रा देवी को छोड़ मोक्ष देवी को प्राप्त करने छोटे से गांव को ज्ञान-पिपासुओं का निवासस्थान बना का प्रयत्न करते हैं, परमार्थ पराग लूटते हैं। दिया है।
प्राणों के प्रतिष्ठापक
0 साध्वी श्री आनन्दश्री एक राजा ने अपने राज्य में अनेकों विद्यालय प्रारम्भ जानना चाहा। ऋषि ने विद्यालयों की व्यवस्था दिखलाने किये । सम्यक् प्रकार की व्यवस्था होने के बावजूद भी के लिए कहा। विद्यारूपी रथ के चक्र अबाध गति से न बढ़ सके।
राजा ने ऋषि को एक सुन्दर भवन के समक्ष ला राजा चिन्तित था, उसने एक ऋषि से इसका कारण खड़ा किया। बाहर से जितना भव्य, भीतर से उतना ही
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