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बच्चों में चरित्र-निर्माण : दिशा और दायित्व
के पीछे, शिक्षक के चरित्र एवं विद्वत्ता का जोर हो तो बच्चों पर त्वरित असर पड़ेगा, अन्यथा शिक्षक भी असम्मान का भागी होगा और बच्चों को भी कई दुर्गुणों एवं दुर्व्यसनों में फंसा सकता है। शिक्षक का निजी और सार्वजनिक जीवन अलग-अलग नहीं हो सकता है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक के बच्चे तो शिक्षक के चरित्र एवं संस्कार से ही कुछ सीख लेते हैं। अत: शिक्षकों को वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्वार्थों, दुराग्रहों से ऊपर उठकर समर्पण की भावना से कार्य करते हुए शिक्षा देनी होगी जो केवल आजीविका के लिये ही पर्याप्त न हो अपितु बच्चों को एक सही जीवन-दर्शन भी दे सके ।
व्यावहारिक शिक्षा का प्रसार इतनी तेजी से हो रहा है कि भारी संख्या में गुणसम्पन्न शिक्षक नहीं मिल सकते । संसार के पास इसके लिये कोई मापदण्ड भी नहीं है। इसीलिये पारमार्थिक एवं समाज-सेवी संस्थाओं एवं व्यक्तियों को अधिकाधिक प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षण अपने हाथ में लेना चाहिये जिनमें व्यावहारिक ज्ञान के साथसाथ ही नीति-शिक्षा भी दी जा सके। इन संस्थाओं में उच्च संस्कारयुक्त सेवाभावी शिक्षक नियुक्त किये जा सकते हैं। ऐसी समाजसेवी संस्थाएँ ही मेधावी, अध्ययनशील, त्यागमय, जीवन वाले उच्च विचारशील शिक्षकों को प्रश्रय देकर अधिकाधिक बच्चों को संस्कारित करने का दायित्व पूरा कर सकती हैं। समर्पित शिक्षक हजारों लाखों बच्चों का मानस परिवर्तन कर पूरी सामाजिक राजनैतिक सुव्यवस्था का सूत्रपात कर सकते हैं।
ऐसे शिक्षक आकर्षक सद्साहित्य की रचना कर सकते हैं । वैसे जहाँ पाठ्य-पुस्तकें और कापियाँ भी उपलब्ध न हों वहाँ अतिरिक्त पाठन सामग्री उपलब्ध कराना कठिन होगा। यद्यपि समाज एवं संस्थाएँ लाखों रुपये कई गतिविधियों पर व्यय करती हैं परन्तु बच्चों के साहित्य पर ध्यान नहीं दिया गया है। जब उन्हें सस्ते मूल्य में सदसाहित्य नहीं मिलता तो वे सिने-पत्रिकाएँ और सस्ता अश्लील साहित्य चुन लेते हैं। अतः समाजसेवी संस्थाओं और विद्यालयों के शिक्षकों, विद्वानों द्वारा बच्चों के लिए अच्छे साहित्य की रचना और प्रकाशन होना चाहिए।
साधनहीन, निराश्रित, अनाथ, फुटपाथों, झुग्गी-झोंपड़ियों में पैदा होने, पलने वाले बच्चों को संस्कारित करने के लिए पारमार्थिक और समाजसेवी संस्थाओं को जिम्मा लेना होगा। इसमें कई पढ़े-लिखे युवक, शिक्षक नौकरी पेशा लोगों की मानद सेवा ली जा सकती है। पहले छोटी-छोटी पाठशालाएँ खोली जा सकती हैं। इन बच्चों को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के भोजन की आवश्यकता है। यदि मानव समाज-सेवी संस्थाएँ यह कार्य हाथ में लें तो कई प्रकार की शासकीय स्कीमों से अनुदान और सहायता भी प्राप्त हो सकती है। हजारों-लाखों के रुपये दान देने या लाखों-करोड़ों रुपये मन्दिरों व पहाड़ों पर या चातुर्मासों पर खर्च करने की बजाय जीते-जागते इन बालकों पर खर्च होने चाहिए । समाजसेवी और धार्मिक संस्थाएँ साम्प्रदायिक और आम्नायों के संकीर्ण घेरे से निकलकर इन विपन्न बालकों को शिक्षा दे सकती हैं। इससे कई बच्चे जो भीख मांगने पर मजबूर हो जाते हैं, होटल या दुकान पर या मण्डी में हम्माली करते हैं, या पाकिटमार या उच्चकों की गिरफ्त में चले जाते हैं, उनसे मुक्त होकर इन्हीं स्कूलों में पढ़कर संस्कारित हो जायेंगे और सम्मानपूर्ण जीवन जी सकेंगे। इस हेतु कर्मठ संस्थाओं एवं निःस्वार्थ समाजसेवियों की आवश्यकता होगी।
समाज और सरकार यदि इन अभावग्रस्त हजारों-लाखों बच्चों के प्रति बेखबर रहती है और ये बच्चे बिगड़ते हैं तो पूरे समाज का चरित्र प्रभावित होगा। साधन-सम्पन्न एवं विपन्न बच्चों की खाई बढ़ती गई तो भयंकर संघर्ष और विस्फोट की स्थिति निर्मित हो सकती है, जिसे संभालना समाज एवं सरकार के लिए कठिन होगा। अत: इन बच्चों को शिक्षा एवं संस्कार देने के लिये सामाजिक संस्थाओं को विशेष व्यवस्था करनी चाहिये।
कानून बनवाकर या बनाकर समाज और सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मान लें। यदि हमें भावी पीढ़ी के चरित्र एवं भविष्य की चिन्ता है तो बच्चों को खतरनाक, बोझिल, उबाऊ कार्यों और क्रियाओं में काम करने से रोकना होगा। बच्चे को संस्कारित करने के लिये स्कूल भेजने की बजाय गाय, ढोर चराना या खेत की रखवाली अधिक लाभप्रद है। ऐसे स्कूलों की व्यवस्था करनी होगी कि बच्चा पढ़ भी सके और मां-बाप के काम में कुछ हाथ भी बँटा सके।
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