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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीनव परिचय ....................................................................
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सी मच रही थी। अब तक का जीवन संघर्षों में ही गुजरा था, कर्म के बन्धनों की लीला भी बड़ी विचित्र है । इस भव में जो कर्मबन्ध हो रहे हैं उनका छुटकारा कब होगा? सम्पत्ति के परिग्रह में भगवान महावीर ने धर्म नहीं कहा है। आपके उद्वेलित मन ने संयम और अपरिग्रह के महत्त्व को समझा। मुनिश्री घासीरामजी के पास जाकर एक दिन आपने कहा, 'पूज्य माईतां ! मुझे परिग्रह की प्रतिज्ञा करा दीजिये' और सचमुच आपने यह प्रतिज्ञा ले ली कि 'जिस दिन पास में एक लाख रुपया नकद हो जायेगा, एक लाख रुपये का सोना-चाँदी हो जायेगा, एक लाख के मकानात हो जायेंगे और एक लाख रुपये हाथ से खर्च हो जायेंगे, उसके बाद व्यापार नहीं करूंगा।' धर्म और आत्म-कल्याण की ओर आपके रुझान की इस प्रथम बड़ी प्रतिज्ञा से आगे चलकर आपका जीवन क्रम ही बदल गया।
आपकी यह प्रतिज्ञा वि० सं० २००० में पूरी हो गई आपके छोटे भाई भँवरलालजी सुराणा अब तक दुकान के काम में आपकी छोटी-मोटी मदद करते थे । एक दिन आपने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, 'अब मेरी प्रतिज्ञा पूरी होगई है, अब मैं व्यापार नहीं कर सकता, यह सम्पूर्ण धन्धा अब तुम सम्हालो।' राम के आदेश के सामने भरत को नतमस्तक होना पड़ा । भंवरलालजी ने धन्धा सम्हाला और आपने प्रतिज्ञा के सन्दर्भ में पच्चीस हजार रुपये नकद, पाँच सौ तोला सोना, पाँच हजार तोला चाँदी और राणावास में दो मकान रखकर बाकी समस्त सम्पत्ति अपने छोटे भाई के नाम कर दी।
श्री जीवनमलजी स्वामी का चातुर्मास वि० सं० २००१ में युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने महती कृपा करके मुनिश्री जीवनमलजी स्वामी ठा. ३ का चातुर्मास राणावास गाँव में फरमाया। श्री जीवनमलजी स्वामी की धर्म-प्रभावना अच्छी थी। व्याख्यान में बहुत भीड़ रहती थी, लोगों में भी अपूर्व उत्साह था। तेरापंथ सम्प्रदाय के सन्तों का गाँव में यह द्वितीय चातुर्मास था, इस कारण राणावास के आस-पड़ोस के गांवों के तेरापंथी भाई-बहन भी प्रायः दर्शनार्थ आते रहते थे। गाँव में अच्छी-खासी चहल-पहल रहती थी।
गाँव में जैन समाज का एक स्कूल पहले से ही चलता था। चातुर्मास काल में इस स्कूल की व्यवस्था, छात्रों के प्रवेश और श्री गजसिंहजी अध्यापक को लेकर यहाँ के तीनों सम्प्रदायों में विवाद पैदा हो गया। स्थानकवासी व मूर्तिपूजक समाज एक तरफ थे और तेरापंथ समाज एक ओर था। बहुत प्रयास करने के बाद भी विवाद सुलझ नहीं रहा था। स्थिति यहाँ तक आ गई कि अध्यापक श्री गजसिंहजी को इस स्कूल की सेवाओं से ही मुक्त कर दिया गया। ऐसी स्थिति में ग्रन्थनायक श्री केसरीमलजी के चचेरे भाई श्री मिश्रीमलजी सुराणा ने गाँव में ही एक दूसरा स्कूल खोल दिया। श्री गजसिंह की नियुक्ति इस स्कूल में अध्यापक के रूप में कर दी गई । पूर्व स्कूल में जितने भी तेरापंथी छात्र थे, वे सब इस स्कूल में आकर भर्ती हो गये । स्कूल विधिवत् चलने लगा।
विद्यालय की स्थापना इसी चातुर्मास काल में सिरियारीनिवासी श्री बस्तीमलजी छाजेड़ मुनिश्री जीवनमलजी के दर्शनार्थ राणावास गाँव में आये। उन्होंने गाँव के गणमान्य लोगों की एक बैठक में तेरापंथ समाज की ओर से एक अच्छे स्कूल की स्थापना पर जोर दिया, इस बैठक में श्री केसरीमलजी सुराणा भी मौजूद थे। सर्वसम्मति से ऐसे स्कूल की स्थापना करने का निर्णय हुआ। बैठक में ही इस कार्य हेतु चन्दा भी एकत्रित किया गया। श्री बस्तीमलजी छाजेड़ ने अपना जीवन इस स्कूल को समर्पित करने का निश्चय किया। वि० सं० २००१ की आश्विन शुक्ला १० को मिसरू खाँ पठान का मकान किराये पर लेकर पांच छात्रों से विद्यालय व छात्रावास के रूप में एक शिक्षा केन्द्र आरम्भ किया गया।
बीज से बरगद बनाम विद्याभूमि उपर्युक्त निर्णय के बाद श्री केसरीमलजी अपने परिवार सहित वापस बुलारम चले गये। इधर श्री बस्तीमल जी छाजेड़ भी अचानक बंगलौर चले गये और छः माह तक लौटकर नहीं आये । वि० सं० २००१ का मर्यादा महोत्सव सुजानगढ़ में था। इस अवसर पर ग्रन्थनायक श्री केसरीमलजी अपने चचेरे भाई श्री मिश्रीमलजी के साथ सुजानगढ़ आचार्य प्रवर के दर्शनार्थ आये । यहाँ आने पर दोनों का विचार हुआ कि मारवाड़ में आ गये हैं तो राणावास चलकर
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