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भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा
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भरा है, अत्यन्त निन्दित है, में रहकर प्रमाद पर विजय नहीं पा सकता, चंचल मन को वश में नहीं कर सकता। अतः चैतसिक प्रशान्ति के लिए सत्पुरुषों ने गार्हस्थ्य का त्याग ही किया है।
___ इतना ही नहीं, उन्होंने और भी कठोरतापूर्वक कहा कि किसी देश-विशेष और समय-विशेष में आकाशकुसुम का अस्तित्व चाहे मिल सके, गर्दभ के भी सींग देखे जा सकें, किन्तु किसी भी काल तथा किसी भी देश-स्थान में गृहस्थाश्रम में रहते हुए ध्यान सिद्धि अधिगत करना शक्य नहीं है। ज्ञानार्णव के वे श्लोक इस प्रकार हैं
न प्रमादजयं कर्तु, धीधनैरपि पार्यते । महाव्यसनसंकीर्णे, गुंहवासेऽति-निन्दिते ॥४.६।। शक्यते न वशीकर्तु गृहिभिश्चपलं मनः । अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थ सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थितिः ।।४.१०।। खपुष्पमथवा शूग खरस्यापि प्रतीयते ।
न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिहाश्रमे ॥४.१७॥ आचार्य शुभचन्द्र ने जो यह कहा है, उसके पीछे उनका जो तात्त्विक मन्तव्य है वह समीक्षात्मक दृष्टि से विवेच्य है।
ज्ञाप्य है कि सापवाद और निरपवाद व्रत-परम्परा तथा पतंजलि द्वारा प्रतिपादित यमों के तरतमात्मक रूप पर विशेषतः ऊहापोह तथा गवेषणा अपेक्षणीय है। पतंजलि ने “जाति देश काल समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमामहाव्रतम् (२.३१)” यों निरपेक्ष या निरपवाद रूप में यमों के पालन को जो महाव्रत शब्द से संजित किया है, वह जैन परम्परा में स्वीकृत महाव्रत के सामकक्ष्य में है। योगसूत्र के व्यास-भाष्य में इस सन्दर्भ में विशद विवेचन है।
नियम-योगसंग्रह यमों के पश्चात् नियम आते हैं। नियम साधक के जीवन में उत्तरोत्तर परिष्कार लाने के साधन हैं । समवायांग सूत्र के बत्तीसवें समवाय में योग-संग्रह के नाम से बत्तीस नियमों का उल्लेख है, जो साधक की व्रतसम्पदा की वृद्धि करते हैं । आचरित अशुभ कर्मों की आलोचना, कष्ट में धर्म-दृढ़ता, स्वावलम्बी तप, यश की अस्पृहा, अलोभ, तितिक्षा, सरलता, पवित्रता, सम्यक्दृष्टि, विनय, धैर्य, संवेग, माया शून्यता आदि उनमें समाविष्ट हैं।
__ पतंजलि द्वारा प्रतिपादित नियम तथा समवायांग के योगसंग्रह परस्पर तुलनीय हैं। सब में तो नहीं पर अनेक बातों में इनमें सामंजस्य है । योग-संग्रह में एक ही बात को विस्तार से अनेक शब्दों में कहा गया है। इसका कारण है-जैन आगमों में दो प्रकार के अध्येता बताये गये हैं-संक्षेप-रुचि और विस्तार-रुचि । संक्षेप-रुचि अध्येता बहुत थोड़े में बहुत कुछ समझ लेना चाहते हैं और विस्तार-रुचि अध्येता प्रत्येक बात को विस्तार के साथ सुनना-समझना चाहते हैं। योगसंग्रह के बत्तीस भेद इसी विस्तार-रुचि-सापेक्ष निरूपण-शली के अन्तर्गत आते हैं।
आसन प्राचीन जैन परम्परा में आसन की जगह स्थान का प्रयोग हुआ है। ओवनियुक्तिभाष्य (१५२) में स्थान के तीन प्रकार बतलाये गये हैं-ऊर्ध्व-स्थान, निषीदन-स्थान तथा शयन-स्थान ।
__ स्थान का अर्थ गति की निवृत्ति अर्थात् स्थिर रहना है। आसन का शाब्दिक अर्थ है बैठना; पर वे आसन खड़े, बैठे, सोते-तीनों अवस्थाओं में किये जाते हैं। कुछ आसन खड़े होकर करने के हैं, कुछ बैठे हुए और कुछ सोये हुए करने के हैं। इस दृष्टि से आसन शब्द की अपेक्षा स्थान शब्द अधिक अर्थसूचक है।
ऊर्ध्व-स्थान-खड़े होकर किये जाने वाले स्थान-आसन ऊर्च आसन कहलाते हैं। उनके साधारण, सविचार, सन्निरुद्ध, व्युत्सर्ग, समपाद, एकपाद तथा गृहोड्डीन-ये सात भेद हैं । निषीदन-स्थान-बैठकर किये जाने वाले स्थानों
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