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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड
किया है, जिसमें प्रियवियोग में भारतीय ललनाएँ कौओं को उड़ाती थीं और उनके माध्यम से पति तक सन्देश पहुँचाती थीं। पुत्र के परदेश-गमन पर माताएँ बेटे के सिर पर दही, दूर्वा और अक्षत लगाकर पूजा-वन्दना करती थीं। जलदेवता का पूजन भी लोक-रूढ़ि थी। उस समय बहु-विवाह की प्रथा थी। विवाह कार्यों में अत्यधिक धन-व्यय किया जाता था। इस अवसर पर दमामा, शंख, तुरही और मादल बजाते थे। किन्तु युद्ध के समय नगाड़ा बजाते थे। शृंगार प्रसाधन में महिलाएँ अत्यधिक रुचि रखती थीं । करधनी, हार, कुण्डल और केशकलाप में कुसुमों का प्रसाधन सामान्य वनिताएँ भी करती थीं। इसी प्रकार अंगूठी, भुजबन्द, कंगन, बिछुए, कटिसूत्र, मणिसूत्र आदि का भी सामान्य जनता में प्रचलन था। उस काल में युद्ध किसी सुन्दरी या राज्य-विस्तार के निमित्त होते थे। उस समय कई छोटे-छोटे राज्य थे।
धार्मिक विश्वास--अपभ्रंश के सभी काव्य जैन-कवियों द्वारा रचित हैं । इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि इनमें २४ तीर्थंकरों का स्तवन तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट धर्म का स्वरूप एवं मोक्ष-प्राप्ति का उपाय वणित हैं। किन्तु मध्यकालीन देवी-देवताविषयक मान्यताओं का उल्लेख भी इन काव्यों में मिलता है। यही नहीं, जल (वरुण) देवता का पूजन, जल-देवता का प्रत्यक्ष होना, संकट पड़ने पर देवी-देवताओं द्वारा संकट-निवारण आदि धार्मिक विश्वास कथाओं में लिपटे हुए प्रतीत होते हैं।
इस प्रकार भविसयतकहा कथा-काव्य से कवि धनपाल का व्यक्तित्व और कृतित्व देखा जा सकता है, जो अपभ्रंश काव्य में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं।
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