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महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व और कृतित्व
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अन्य अलंकारों के उदाहरण इस प्रकार है१. कलि-तरुवरहो मूलु छिदिज्जइ (रूपक)
(कलह रूपी वृक्ष की जड़ भी नष्ट कर देनी चाहिए। ) २. किउ अपमाण्ड णिउत्त मुहल्लउ अहरउ णावइ दाडिमहुल्लउ (व्यतिरेक)
(सुख से संलग्न अधर (निचले ओठ) ने अनार के फल को नीचा दिखाकर उसका अपमान किया।) ३. जो भक्खइ मंसु तासु कहिमि कि होइ दय (काव्यलिंग)
(जो मांस खाता है उसके दया कहाँ से हो सकती है ? )
छन्द-अपभ्रंश के काव्यों में मुख्यतः मात्रिक छन्दों का प्रयोग हुआ है। मात्रिक रचना परवर्ती प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की निजी विशेषता है। कवि धनपाल ने अपने काव्य में निम्नलिखित छन्द विशेष रूप से प्रयुक्त किये हैं
पञ्झरिका, अडिल्ला, दुवई, मरहट्ठा, सिहावलोकन, काव्य, प्लवंगम, कलहंस, गाथा, धत्ता, उल्लाला, अभिसारिका, विभ्रमविलासवदन, किन्नरमिथुनविलास, मर्करिका, चामर, भुजंगप्रयात, शंखनारी, लक्ष्मीधर और मन्दार।
कुछ छन्दों के उदाहरण द्रष्टव्य हैपज्झरिका
कि करमि खीणविहवप्पहाइ गउ लहमि सोह सज्जण सहाइ ।
अह णिवणु सोहइ ण कोइ धणु संपय विणु गुण्णहि ण णेह ॥ -(भ० क० १, २) शंखनारी
रणे णोसंरते भयं वीसरते। महावाणि वग्गे पुरे हट्ट मग्गे ॥
-(भ० क० १४,८)
काव्य
पियविरहाणलेण संतत्तउ सो हिउतउ । पइसइ चंदकांति चैतालइ सव्व सुहालइ ॥
-(भ० क० ७,८) काव्य रूढ़ियाँ-धनपाल ने अपने काव्य में इन सात काव्य रूढ़ियों को प्रयुक्त किया है-(१) मंगलाचरण (२) विनय-प्रदर्शन (३) काव्य-रचना का प्रयोजन, (४) सज्जन-दुर्जन वर्गन (५) वन्दना (६) श्रोता-वक्ता शैली (७) आत्मपरिचय ।
समाज और संस्कृति-धनपाल के काव्य में राजपूतकालीन समाज और संस्कृति की झलक दृष्टिगोचर होती है। भविष्यदत्त केवल सकल कलाएँ, ज्ञान-विज्ञान, ज्योतिष, तन्त्र-मन्त्रादिक ही नहीं सीखता है, वरन् विविध आयुधों का विविध प्रकार से संचालन, संग्राम में विभिन्न चातुरियों से बचाव, मल्लयुद्ध तथा हाथी घोड़े की सवारी आदि की भी शिक्षा प्राप्त करता है, जो उस युग की विशेष कलाएँ थीं। उस युग में स्त्रियाँ विभिन्न कलाओं में तथा विशेषकर संगीत और वीणावादन में निपुण होती थीं । सरूपा इन कलाओं से युक्त थी-वीणालावणिगेयपरिक्खणु कुडिलावियारि सरोसणि रिकवणु । (भ० क० ३, ३)
लोक-जीवन और लोक-रूढ़ियाँ-धनपाल ने तत्कालीन लोक-जीवन और लोकरूढ़ियों का विवरण प्रस्तुत
१. श्री दलाल गुणे : भविसयतकहा की भूमिका, पृ० २८-२९
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